न्याय की सार्थक परिकल्पना में अधिवक्ता एवं पुलिस के मध्य सामंजस्य की आवश्यकता
लखनऊ: हमारा न्यायिक परिदृश्य पौराणिक न्यायिक व्यवस्थाओं एवं नवीन विधिवेत्ताओं के सिद्धांतों का एक समन्वय है। भारतवर्ष में न्याय व्यवस्था को बहुत ही महत्व दिया गया है। यहां पर न्याय व्यवस्था व उसके संचालन के लिए न्याय शास्त्र की संकल्पना की गई, यह हमारे देश में न्याय व्यवस्था व उसकी व्यवस्थाओं की महत्ता को दर्शित करता है। भारत के प्राचीन एवं मध्यकाल के इतिहास के समयचक्र से अग्रसर होते हुए यदि हम आधुनिक इतिहास की ओर यात्रा करते हैं, तो हम यह पाते हैं कि हमारे आधुनिक विधि एवं न्याय व्यवस्था पर पाश्चात्य विधि एवं न्याय व्यवस्था की अमिट छाप सी प्रतीत होती है। यदि हम इसी नवीन एवं आधुनिक न्याय व्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं तो पुलिस और अधिवक्ता के उल्लेख के बिना यह मानो बिना पहिए की गाड़ी चलाने जैसा है। जहां एक ओर पुलिस का काम न्याय व्यवस्था को बनाए रखना है, वहीं दूसरी तरफ अधिवक्ताओं का कर्तव्य आम जनमानस को न्याय दिलाना है। दोनों का ही यह कर्तव्य बनता है कि वे न्यायिक व्यवस्था को सार्थक बनाने एवं सुचारु रूप से चलाने हेतु अपनी अपनी भूमिकाओं एवं दायित्वों का निर्वाहन बिना किसी द्वेष भावना के करें।
न्यायिक व्यवस्था में अधिवक्ता एवं पुलिस की गंभीर एवं अहम भूमिका का निरूपण रथ के दो पहियों से किया जाना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा। जिस प्रकार किसी रथ के दोनों पहियों में से यदि एक भी कुशलता एवं समन्वयपूर्वक कार्य न करे तो रथ का अपने गंतव्य तक पहुंचना संभव नहीं हो सकता, ठीक उसी प्रकार यदि पुलिस और अधिवक्ता कुशलतापूर्वक एक दूसरे के साथ समन्वय एवं आपसी सामंजस्य से न्यायिक व्यवस्था के संचालन में अपना योगदान नहीं देंगे तो सरल एवं व्यवहारिक न्याय व्यवस्था की संकल्पना को सार्थक नहीं किया जा सकता है।
वर्तमान परिदृश्य में पुलिस एवं अधिवक्ताओं के मध्य होने वाले आपसी मतभेदों एवं संघर्षों को देखने पर भारत में आंग्ल शासन के समयावधि में होने वाले संघर्षों एवं आम जनमानस पर होने वाले कुठाराघातों का स्मरण बरबस ही स्मृति ताजा कर देता है। यह मतभेद और संघर्ष न केवल न्यायिक व्यवस्था पर कुठाराघात जैसा है वरन यह मानसिक संकीर्णता एवं गुणवत्ता के अभाव को भी दर्शाता है। अधिवक्ताओं का न्यायिक व्यवस्था के इतर जाकर पुलिस पर दबाव बनाना व गलत एवं आधारहीन तर्कों से न्यायिक कार्यों में बाधा उत्पन्न करते हुए हड़ताल पर चले जाना न्यायिक व्यवस्था को भंग करने के समान है। वहीं पुलिस द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग करना तथा अधिवक्ताओं से अपनी जातीय दुश्मनी समझने को भी किसी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है। भारत का संविधान भारत की न्याय व्यवस्था को किसी भी तरह से पुलिसिया राज्य के अंतर्गत लाने की संकल्पना को बढ़ावा नहीं देता। भारत के संविधान की प्रस्तावना ही भारत के लोग से बनी है न कि किसी अनियंत्रित पुलिसिया प्राधिकारों से। हमारे संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत ही हम भारत के लोग-वाक्यांश से होती है जिसका अर्थ है कि यहां पर भारत के लोग ही सब कुछ हैं और वही भारत के लोग भारत के लोगों के लिए शासन व्यवस्था का संचालन करते हैं। भारत के संविधान के भाग चार में निहित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों से यह स्पष्टतया दर्शित होता है कि भारत एक पुलिसिया राज्य ना होकर देश के आम जनमानस के कल्याण एवं समाजवाद को समर्पित संप्रभु राष्ट्र है।
जहां आजादी के समय तथा उसके कई वर्षों तक अधिवक्ताओं ने ही देश की राजनीति को एक नई दिशा दी है वहीं दूसरी ओर उन्हीं अधिवक्ताओं ने अपनी योग्यता से समाज में न्याय व्यवस्था के प्रति आम जनमानस के विश्वास को दृढ़ करने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आज स्वतंत्रता के 75 वर्ष हो जाने के उपरांत अधिवक्ता समाज को भी एक आत्म विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि क्यों उनकी गुणवत्ता में अनवरत एक गिरावट हो रही है। जिसे न्यायालय भी विद्वान अधिवक्ता कहकर संबोधित करती है क्या वे इस संबोधन की गरिमा को बनाए रखने में सक्षम हैं। यह आत्म चिंतन का विषय है। अध्ययन की कमी, राजनीतिक अपराधियों की कठपुतली बनना, अवैध कारोबार में संलिप्तता तथा कई अनैतिक कार्यों में संलिप्तता इस गरिमामई पेशे की छवि को धूमिल करता है। जिसका असर यह होता है कि पुलिसिया राज्य की भावना का जन्म होने लगता है। पुलिस न्याय व्यवस्था को बनाए रखने के नाम पर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने लगती है, और फिर यहीं प्रारंभ होता है अधिवक्ता और पुलिस के आपसी संघर्ष एवं वर्चस्व की लड़ाई, जो न्याय व्यवस्था को लगातार चोट पहुंचाता चला जाता है। जहां एक आम और असहाय व्यक्ति दो पक्षों के आपसी मतभेद एवं संघर्ष का शिकार बनते बनते न्याय से कोसों दूर चला जाता है। जिसके परिणाम स्वरुप अपराध को बढ़ावा मिलने लगता है।
दो पक्षों के आपसी संघर्ष का असर न्यायिक कार्यों पर पड़ना शुरू हो जाता है। अधिवक्तागण न्यायिक कार्य से विरत रहते हैं और मुकदमों की संख्या बढ़ती जाती है। न्याय के दरवाजे खटखटाते खटखटाते कई सांसें दम तोड़ देती हैं परंतु उन्हें न्याय नहीं मिलता। जैसा कि एक कानूनी कहावत है कि “न्याय में देरी न्याय से वंचित करने के समान है।” इसका अर्थ है कि यदि न्याय समय पर नहीं मिलता है तो उसका कोई महत्व नहीं है। यदि न्याय रूपी रथ के दोनों पहिए अधिवक्ता एवं पुलिस परस्पर एक दूसरे के साथ अपने कर्तव्यों तथा संबंधित शासित नियमों का पालन करते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन करेंगे, तो न्याय रूपी रथ अपने वेग से निरंतर प्रगति की ओर बढ़ता रहेगा और त्वरित न्याय की संकल्पना की पूर्ति हो पाना संभव सकेगा।
अतः अधिवक्ताओं को अपनी कलम की ताकत को समझना होगा और अध्ययन के माध्यम से बौद्धिक स्तर को ऊंचा करना होगा। जैसा कि एक मुहावरा है कि “कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली है।” इससे कलम की ताकत और महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर पुलिस को अपने कर्तव्यों के पालन, अनुशासन और सेवा भाव की भावना को अक्षुण्ण बनाए रखना होगा। यही न्यायहित, जनहित तथा देश हित में आवश्यक है। दोनों को एक दूसरे का साथ न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति में देना होगा। न्यायिक व्यवस्था को सुलभता एवं पारदर्शिता की ओर ले जाने के लिए दोनों ही निकायों को “सेवा परमो धर्म:” एवं “न्याय मम धर्म:” की भावना के साथ आगे बढ़ना होगा। यही इनका धर्म होना चाहिए। और जैसा कि महाभारत में भी उल्लिखित है तथा हमारे सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य भी है “यतो धर्मस्ततो जयः” अर्थात जहां धर्म है वहां विजय है। इसी संकल्पना के साथ हमें बेहतर भविष्य के निर्माण की ओर अग्रसर होना चाहिए। इसी में देश एवं मानवता की भलाई है।
लेखक – कीर्ति वर्धन शुक्ला
अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, लखनऊ
