मुगल कैद से कब मुक्त होंगे बाबा कब तक कराहती रहेगी काशी

कई वर्षों बाद काशी में 15 सितम्बर को भगवान विश्वनाथ के दर्शन मुझे हुए। शिवलिंग को स्पर्श करने का पुण्य मिला। संवेदना जगी। जितनी बार काशी गया था, दर्शन के प्रयास में सफल नहीं हुआ। जनरव, अपार भीड़, संकरे प्रवेश-मार्ग, गंदगी अलग। अब ऐसा कुछ भी नहीं। साफ-सुथरा। तिरुपति-तिरुमला से भी अधिक सुरम्य, सुविधाजनक। स्थानीय सांसद नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के सौजन्य और प्रयासों से।
प्रवेश गेट पर सुरक्षा गार्ड ने मेरी तलाशी ली। जेबी कंघी तक रखवा लिया। कंघी से क्या आपदा आ सकती थी? मैंने तो विरोध-व्यक्त किया कि एक सनातनी आस्थावान होने के नाते, मुझसे क्या खतरा है भोले विश्वनाथ को? संदेह तो सटे हुए औरंगजेबी मस्जिद में मेरे प्रवेश के वक्त हो। तब तलाशी तार्किक होती। कहीं मैं औरंगजेब द्वारा ज्ञानवापी पर अतिक्रमण को डायनामाइट से न उड़ा दूं। इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल (1975-77) में यही अभियोग चलाया था मुझ पर, जॉर्ज फर्नांडिस तथा अन्य 23 पर।
तरुणावस्था से ही मेरी अवधारणा रही, जब-जब मैं कृष्ण जन्मभूमि (मथुरा), राम जन्मभूमि (अयोध्या) और काशी विश्वनाथ देवालय जाता रहा, हर आस्थावान हिन्दू को ये अतिक्रमण सेक्युलर भारत में असह्य हैं। हिन्दू जन कितने क्लीव, कापुरुष, मुखन्नस रहे कि इन अतिक्रमणियों को सदियों से बर्दाश्त करते रहे ? फिर डॉ. राममनोहर लोहिया की बात स्मरण आती रही कि जो राजा-महाराजा जायदाद बचाने की फिराक में अपनी बहन और बेटी को मुगलों के हरम में भेजते रहे, उनसे क्या उम्मीद हो सकती थी?
याद आया केसरिया शूरवीर महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया जिसे हल्दीघाटी में हराने जयपुर का युवराज मानसिंह राठौर ही मुगलों का सेनापति बनकर गया था। तेलुगुमणि विजयनगर सम्राट आलिया रामाराया को तालिकोटा (23 जनवरी 1565) की रणभूमि में दक्कन बहमनी सुल्तानों ने धोखे से हराया था। सम्राट की सेना के इस्लामी सैनिक युद्धभूमि में दुश्मनों (सुल्तानों) की फौज में शामिल हो गए थे। विजयनगर साम्राज्य का अंत हो गया। अर्थात हिंदू शासक धोखा खाते रहे। आस्था स्थल खोते रहे। ज्ञानवापी मस्जिद इसी क्रम की एक त्रासदपूर्ण उपज है।
काशी विश्वनाथ देवालय पर डॉ. लोहिया की कार्य-योजना का उल्लेख हो। पुणे की मुस्लिम सत्यशोधक मंडल के संस्थापक स्व. हामिद उमर दलवाई और लोहिया का प्रस्ताव था कि मुस्लिम युवजन को सत्याग्रहियों के रूप में प्रशिक्षित किया जाए। वे सब काशी, अयोध्या और मथुरा में आंदोलन चलायें। लक्ष्य था कि इन तीनों हिंदू आस्था केन्द्रों पर पाशविक सैन्य बल के जरिये मुगलों ने अपनी प्रजा की आस्था और धार्मिक अधिकारों का हनन किया था। अतः आजाद भारत की सरकार इतिहास के इस अन्याय का खात्मा कर, बहुसंख्यक प्रजा को न्यायिक रूप से उसके आस्था का अधिकार लौटाए। उनके पूजास्थल वापस दिए जाएं। पर हुआ बिल्कुल उल्टा। जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने यथास्थिति बरकरार रखी। एक बार भारत सरकार ने राष्ट्रीय एकीकरण समिति बनाई और उसके सदस्यों को अयोध्या, काशी और मथुरा यात्रा पर भेजा। इन स्थलों को देखते ही उस समिति के सदस्य पूर्णतया विभाजित हो गए। सवाल यही उठा कि जहीरुद्दीन बाबर को अयोध्या में ही मस्जिद निर्माण क्यों सूझी? वह इस मस्जिद को गांव धन्नीपुर में बनवाता जहां आज मोदी और योगी आदित्यनाथ की सरकारें विशाल मस्जिद निर्मित करा रहे हैं। यही अपेक्षा आलमगीर औरंगजेब से भी होती है कि बजाय ज्ञानवापी के, काशी के निकट बंजरडीहा में बड़ा मस्जिद बनवा देता। आगरा के सिकंदरा के पास जहां उसके माता-पिता की कब्र है उसके पास, बजाय ईदगाह के, मस्जिद बनवा देता।
सांप्रदायिक विभीषिका का ही अंजाम था कि इस्लामी पाकिस्तान का सृजन और भारत का विभाजन हुआ। इतना सब होने के बाद भी ये तीनों मस्जिदें ऐतिहासिक नाइंसाफी और राजमद में डूबे बादशाहों की नृशंसता के प्रतीकों को स्वाधीन, सेक्युलर भारत कैसे सह पाया? समय रहते मथुरा और काशी में न्याय नहीं हुआ तो वहां भी फैजाबाद जैसा नजारा पेश आ सकता है। समय की यही चेतावनी है।
इसीलिए सेक्युलर भारत को सुदृढ़ कराने की प्रक्रिया तेज करनी होनी चाहिए। क्या तर्क है कि भारतवासियों को सिद्ध करना पड़ रहा है कि राम, शिव, कृष्ण पहले आए थे अथवा इस्लाम? ज्ञानवापी के खंडन को अदालत प्रमाणित करेगी यह मंदिर था? वहां की शिल्पकला पर्याप्त प्रमाण नहीं? हिंदू की सौजन्यता और सहनशीलता को कमजोरी माना जाता रहा। यह प्रक्रिया लंबी चली, अब नहीं। भारतवासियों का मूड बदला है, खासकर युवाओं की ऐतिहासिक न्याय के प्रति मांग बढ़ी है। अयोध्या में 6 सितम्बर 1991 में यह भावना समुचित रूप से प्रतिबिंबित हुई थी। अब नेहरू का भारत नहीं रहा जहां हिंदू कोड तो लागू हो गया, समान नागरिक संहिता पर हिचक हो, बवाल उठाया जाए। काशी विश्वनाथ के दर्शन के बाद ऐसे स्फुट विचार उठे। वक्त का तकाजा है कि परिवर्तन हो, राष्ट्रीय सोच में। इतिहास गवाह है कि सत्ता जब अन्याय खत्म नहीं करती तो फ्रांसीसी क्रांति जैसा उथल-पुथल होता है। बड़ा भयावह। जनविद्रोह जो ठहरा।
मुझे काशी यात्रा का अवसर मिला जब प्रसिद्ध भाषायी मीडिया संस्था हिंदुस्तान समाचार ने हिंदी दिवस (14 सितंबर 2023 पर) वाराणसी में गंगातट पर राजा चेतसिंह किला के प्रांगण में मनाया। कांचीकामकोटि के जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी विजयेन्द्र सरस्वती का निजी आशीर्वाद मिला। उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और बहुभाषी हिंदुस्तान समाचार के निदेशक प्रदीप बाबा मधोक जी (वे स्व. बलराज माधोक के भतीजे हैं) मंचासीन थे। विभिन्न 15 भारतीय भाषाओं के पत्रकारों को प्रशस्तिपत्र दिया गया। मुझे हिंदी, तेलुगू, उर्दू, अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में लेखन हेतु मिला। आयोजक राजेश तिवारी की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस समिति के समूह संपादक रामबहादुर राय हैं, जो जेपी आंदोलन के प्रमुख थे। दैनिक जनसत्ता के संवाददाता रहे। मेरे अनन्य साथी भी। सबको साधुवाद!
