सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ अधूरी है
भारत का विभाजन हुआ यह सभी ने देखा। कहा जाता है कि नियति ही उस दिन की ऐसी थी, पहले से सब कुछ तय था । पटकथा लिखी जा चुकी थी, परिवर्तन की संभावना शून्य थी। लेकिन इतिहास तो ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है, जब पूर्ण वेग विपरीत दिशा में था उसके बाद भी परिवर्तन संभव हो सके, जो कहीं वर्तमान में दिखाई नहीं देते थे। भारत विभाजन का एक सच यह भी है, यदि उस समय देश का अहिंसक आन्दोलन जिसमें कि सबसे अधिक जनसंख्या में लोगों का विश्वास रहा, उसका नेतृत्व कर रहे महात्मा गांधी अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की तरह निर्णय लेने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेते तो देश का परिदृश्य ही कुछ ओर होता, क्योंकि यह स्वभाविक है कि जैसा नेतृत्व होता है, संगठन, सत्ता, शासन की धारा उसी अनुसार बही चली जाती है।
दुनिया जानती है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों का भारत छोड़कर जाना अपरिहार्य हो गया था, किंतु भारत विभाजन बिल्कुल अपरिहार्य नहीं था। कराची में प्रवेश करते समय जिन्ना ने अपने ए.डी.सी. से इस बारे में कहा भी था, ‘मैंने कल्पना तक नहीं की थी कि ऐसा होगा। मुझे आशा नहीं थी कि जीते जी पाकिस्तान देख सकूंगा’। वस्तुत: स्वाधीनता के पहले की स्थितियों को देखें तो इस्लाम का जहाजी बेड़ा सात समुद्रों को तो बेरोकटोक पार कर गया और अजेय रहा, पर जब वह हिन्दुस्तान पहुंचा तो गंगा के पानी में डूब गया था, किंतु उसे बाहर निकालने का कार्य जितना अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति पर अमल करके किया, उससे ज्यादा कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं के बयानों, उनके निर्णयों और कई बार अनिर्णय की स्थिति में बने रहने के कारण, यह जहाज गंगा में डूबने के बाद भी बाहर निकल आया। हिन्दू और मुस्लिम दो अलग संस्कृतियां हैं, ये कभी एक साथ नहीं रह सकतीं, इसलिए दो धर्म, दो देश, दो निशान के आधार पर देश का बंटवारा होकर रहेगा, यह कहना और इस सिद्धांत के सामने नतमस्तक हो जाना निश्चित ही तत्कालीन नेतृत्व की सबसे बड़ी भूल रही।
लाहौर में हुए 1929-30 के कांग्रेस अधिवेशन में 31 दिसम्बर को रावी के तट पर जवाहरलाल नेहरू से अपनी अध्यक्षता में सभी कांग्रेस नेताओं के जरिए देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता की प्रतिज्ञा दिलाई थी। किंतु खेद का विषय है कि जिस रावी के तट पर यह प्रतिज्ञा ली गई, आजाद भारत में वह रावी नदी कहीं नहीं है। उस प्रतिज्ञा के कर्णधार महात्मा गांधी और पं. नेहरू यहां तक कि अन्य दिग्गज कांग्रेसी भी 14 अगस्त 1947 को ली गई अपनी ही पूर्व प्रतिज्ञा भूल गए।
1940 में जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान संबंधी प्रस्ताव स्वीकार्य किया था तो इस पर महात्मा गांधी ने हरिजन समाचार पत्र में कुछ इस तरह समय-समय पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। दो राष्ट्रों का सिद्धांत बेतुका है…जिन्हें ईश्वर ने एक बनाया है, उन्हें मनुष्य क्या कभी बांट सकेगा ? इसी में अन्य एक जगह लिखा… बंटवारे का अर्थ है सच्चाई से मुंह मोड़ना । मेरी समूची आत्मा इस विचार से विद्रोह कर रही है। मेरे विचार से ऐसे सिद्धांतों को स्वीकार करना ईश्वर को नकारना है । मैं हर अहिंसात्मक उपाय से इसे रोकूंगा, क्योंकि इसका अर्थ है एक राष्ट्र के रूप में साथ-साथ रहने के लिए अनगिनत हिन्दू और मुसलमानों ने सदियों तक जो परिश्रम किया है, उस पर पानी फेर देना।
महात्मा गांधी हरिजन में लिखते हैं कि भारत का दो भागों में बंटवारा तो अराजकता से भी भयंकर है। इस अंग-भंग को सहन नहीं किया जा सकता। भारत के टुकड़े करने से पहले मेरे टुकड़े कर डालो। कांग्रेस के एक अन्य लीडर डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने 1945 में अपने कारावास के दौरान ‘इण्डिया डिवाइडेड’ नाम से पुस्तक लिखी थी। उन्होंने बड़े ही तार्किक ढंग से जिसमें भौगोलिक, आर्थिक, रक्षात्मक, सामाजिक, ऐतिहासिक सभी दृष्टिकोण एवं विश्लेषण समाहित थे के माध्यम से यह बताया था कि किस तरह पाकिस्तान की मांग अव्यवहारिक है। लेकिन हुआ क्या वे दो साल बाद ही खंडित आजादी प्राप्त भारत के पहले राष्ट्रपति बने। यह बात पिछले 76 साल में आज तक समझ नहीं आई है। कत्ल और विद्रोह के भय से यदि भारत विभाजन का निर्णय हुआ है तब यह निश्चित ही बहुत दुखान्त है।
आज भारत के विभाजन के लिए किसे दोषी माना जाए ? तत्कालीन नेतृत्व को या अकेले महात्मा गांधी को जिनमें कि समूचा भारत अपनी पूर्ण निष्ठा रखता था और जिनके अड़े रहने पर कभी देश का विभाजन होना संभव नहीं होता, भले ही स्वाधीनता एक या दो साल आगे मिलती। जिन्ना और उस जमाने के मुस्लिम लीग के नेता सही कहते थे कि वे खुद नहीं समझ पा रहे हैं कि पाकिस्तान हकीकत बन चुका है। हमारे लिए तो यह केवल सत्ता में अधिक हक पाने से ज्यादा कुछ नहीं था।
फिर भी कहीं आशा का दीप जल रहा है। यदि हजारों वर्ष बाद भी दुनियाभर में फैले यहूदी अपना देश इजरायल पा सकते हैं और कई पीढ़ियों के पश्चात यरुशलम में मिल सकते हैं । यदि लिंकन का नेतृत्व अमेरिका के गृहयुद्ध को समाप्त करने में सफल हो सकता है और अमेरिका एक संप्रभु राष्ट्र बना रह सकता है, तब जरूर हम भारतीयों को भी एक राष्ट्र के रूप में भारतीय महाद्वीप को लेकर अपनी आशा बनाए रखनी होगी। आज विभाजन विभीषिका दिवस पर हमारे अंदर से एक संकल्प उठना चाहिए, जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहते भी थे, आजादी अभी अधूरी है। सपने सच होने बाकी हैं , रावी की शपथ न पूरी है।
भरोसा रखना होगा, तभी कल रावी का तट हमारा होगा। लव-कुश का लाहौर और हिन्दुकुश पर्वत वृहद भारत में होगा। अखण्ड भारत दिवास्वप्न नहीं, भविष्य के गर्त में छिपा हमारा संकल्प है, जो आज नहीं तो कल साकार रूप अवश्य लेगा, क्योंकि यदि भारत का विभाजन एक त्रासद नियति थी तो उसका समापन एक सुखद भविष्य है। यही है हमारी पीढ़ियों की जिजीविषा का सत्य, परम सत्य, सुखद अनुभूति से पूर्ण सत्य ।