(बॉलीवुड के अनकहे किस्से) विद्रोही नायिका शांता आप्टे
सिनेमा में स्त्री या नायिका को सम्मानजनक स्थिति दिलाने के लिए अस्सी के दशक में हमें स्मिता पाटिल और शबाना आजमी के चेहरे नजर आते हैं लेकिन इससे भी पहले चालीस के दशक में यह काम शांता आप्टे ने किया। हिंदी और मराठी सिनेमा में उन्होंने अपने समय में कई कीर्तिमान स्थापित किए। वह गाती तो अच्छा थीं ही बल्कि नृत्य में भी निपुण थीं। अपनी आंखों के सुंदर उपयोग से उन्होंने अपने नृत्य को इतना स्वाभाविक बना दिया था कि दर्शक उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते थे। उनके गायन और अभिनय की तुलना कोलकाता की विख्यात बंगला कलाकार कानन देवी से की जाती थी। एक अच्छी गायिका के तौर पर ग्रामोफोन कंपनियों ने उनके स्वतंत्र रूप से रिकॉर्ड भी जारी किए।
अपनी पहली ही फिल्म श्यामसुंदर से चर्चा में आईं शांता आप्टे की अन्य चर्चित फिल्में थीं-‘अमृत मंथन’, ‘अमर ज्योति’, ‘राजपूत रमानी’, दुनिया न माने’, ‘कुंकू’ आदि । बाद में उन्होंने तमिल फिल्म ‘सावित्री’ (1941) में भी काम किया। उनकी अंतिम फिल्मों में ‘भाग्यरेखा’, ‘मैं अबला नहीं हूं’, ‘स्वयंसिद्ध’ ,’चंडी पूजा’ ,’राम भक्त विभीषण’ (1958) का उल्लेख मिलता है। लेकिन उनकी सबसे ज्यादा चर्चा 1937 में आई फिल्म ‘दुनिया न माने’ से हुई जिसे प्रभात फिल्म कंपनी ने बनाया था । वी. शांताराम द्वारा निर्देशित यह फिल्म बेमेल विवाह की समस्या पर आधारित थी। इस फिल्म की सराहना विदेशों में भी हुई। यह फिल्म उस समय बनाई गई थी जब नारी स्वतंत्रता जैसा कोई शब्द समाज ने नहीं सुना था।
शांता आप्टे ने नायिका नीरा की भूमिका में इतना विलक्षण अभिनय किया था कि समाज में उनकी विद्रोही महिला की छवि स्थापित हो गई थी। फिल्म में नायिका नीरा अपने सौतेले माता-पिता के द्वारा जबरदस्ती कर दिये गए विवाह को बहुत साहस के साथ अस्वीकार करती है। वह विवाह के बंधन में बंध जाने के बाद भी उस विवाह के बंधन को स्वीकार नहीं करती। शांताराम ने नायिका को ऐसा व्यक्तित्व प्रदान किया था कि वह कोरा आदर्शवाद बघारती स्त्री दिखाई न दे। वे उसे ऐसी आत्मसंयमी, विदुषी और विद्रोहिणी नारी बनाते हैं जो यथार्थ जीवन में भी लोगों को प्रेरणा दे सके।
शांताराम ने इस बेमेल विवाह के अनमेल को तीव्र व्यंग्यात्मक रूप में दिखाने के लिए विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का सहारा लिया था। नायिका और उसके बूढ़े पति की बहन के बीच की लड़ाई को नेपथ्य में बिल्लियों की लड़ने की आवाजों के द्वारा दर्शाया गया था। इसी तरह जब बूढ़ा पति अपनी मूंछों को रंग रहा होता है, तब नेपथ्य से बर्तन में कलई करने वाले की आवाज आती है-कलई करा लो। छाते के नीचे खड़े हुए राजकपूर और नर्गिस की प्रतीकात्मक छवि से पहले ‘दुनिया न माने’ में बूढ़ा पति अपनी लाचारी को छुपाने के लिए कई तरह से छाते का प्रयोग करता है ।
शांता आप्टे का जन्म 23 नवंबर, 1916 को महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता स्टेशन मास्टर थे और घर में संगीत का माहौल था। उन्हें उनके पिता ने पंढरपुर के महाराज संकेत विद्यालय से प्रशिक्षण भी दिलवाया था। फिल्मकार भालजी पेंढारकर ने उन्हें फिल्मों में सर्वप्रथम प्रस्तुत किया फिल्म ‘श्याम सुंदर’ में। सरस्वती सिनेटोन की इस फिल्म में उन्होंने राधा का रोल किया था। हालांकि फिल्म हिंदी में ज्यादा नहीं चली लेकिन मराठी में इसने सिल्वर जुबली मनाई।
शांता आप्टे की प्रतिभा का सही उपयोग प्रभात फिल्म कंपनी की फिल्मों में किया गया। वे केवल अपने चरित्र से ही नहीं बल्कि आम जीवन में भी बहुत दिलदार और बेधड़क थीं। उस जमाने में पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ के संपादक बाबूराव पटेल की तूती बोलती थी। एक बार उन्होंने उनके ऊपर कोई गॉसिप लिख दिया तो वह फिल्म इंडिया के ऑफिस में डंडा लेकर पहुंच गई थीं और बाकायदा उनकी टेबल पर जाकर उन्हें धमकाया कि अगर आगे ऐसा कुछ किया तो उनकी पिटाई होगी।
ऐसे ही प्रभात फिल्म कंपनी ने कॉन्ट्रैक्ट की एक शर्त का पालन नहीं किया तो वे उसके मेन गेट पर भूख हड़ताल पर बैठ गई थीं । इतना ही नहीं उन्होंने सिनेमा में अपने प्रवेश पर मराठी में आत्मकथात्मक पुस्तक ‘जाऊ मी सिनेमात’ भी लिखी थी। स्वतंत्रता के बाद काम में कमी और अकेले रहने के कारण वह शराब पीने लगीं। 25 फरवरी 1964 को वे हमारे बीच नहीं रहीं।
चलते-चलते
‘दुनिया न माने’ फिल्म में नायिका शांता आप्टे गीत की तरह अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि लांगफैलो की कविता पढ़ती हैं-‘In the words broad field of battle, Be not like dumb driven cattle’। इसे गीत की तरह प्रस्तुत किया गया था। इसको संगीतबद्ध करने के लिए बंबई के ताजमहल होटल का ऑर्केस्ट्रा बुलाया गया था। फिल्म के संगीतकार थे केशव राव भोले ।