जल की उपलब्धता और शुद्धता का संकट
भारत में जल का वितरण सर्वत्र एक समान नहीं है। कुछ क्षेत्रों में यह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है तो अन्य क्षेत्रों में इसकी कमी है। आज जरुरत इस बात की है कि जल संबंधी ऐसी वितरण व्यवस्था हो ताकि जल हानि न हो और जल प्रदूषित होने से भी बच जाए। इसे बचाने की कोशिश नहीं हुई तो मानव जीवन का संकट में पड़ना तय है। ध्यान देना होगा कि भूजल जल आपूर्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इसका उचित संरक्षण और उपयोग बेहद आवश्यक है। भारत के जल संसाधन पर नजर दौडाएं तो भारत में विश्व के जल संसाधनों का 4 प्रतिशत भाग पाया जाता है।
इसका लगभग एक तिहाई भाग वाष्पीकृत हो जाता है। तथा 45 प्रतिशत भाग ढाल के अनुरुप बहकर तालाबों, झीलों और नदियों में चला जाता है। वर्षण से जल की जो थोड़ी-सी मात्रा यानी तकरीबन 22 प्रतिशत मृदा में प्रवेश कर भूमिगत हो जाती है उसे भौम जल या भू-जल कहा जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप में भूजल का व्यवहार अत्यधिक जटिल है। जीईसी 1997 के दिशा निर्देशों एवं संस्तुतियों के आधार पर देश में स्वच्छ जल के लिए भूजल संसाधनों का आकलन किया गया जिसके मुताबिक देश में कुल वार्षिक पुनः पूरणयोग्य भूजल संसाधनों का मान 433 घन किमी है। प्राकृतिक निस्सरण के लिए 34 बीसीएम जल स्वीकार करते हुए नेट वार्षिक भूजल उपलब्धता का मान संपूर्ण देश के लिए 399 बीसीएम है। वार्षिक भूजल का मान 231 बीसीएम है जिसमें सिंचाई उपयोग के लिए 213 बीसीएम तथा घरेलू एवं औद्योगिक उपयोग के लिए जल का मान 18 बीसीएम है। धरातलीय जल तथा पुनर्भरण योग्य भूमिगत जल से 1,869 घन किमी जल उपलब्ध है और इनमें से केवल 60 प्रतिशत यानी 1,121 घन किमी जल का लाभदायक उपयोग किया जाता है।
भूजल पीने के पानी के अलावा पृथ्वी में नमी बनाए रखने में भी मददगार साबित होता है। पृथ्वी पर उगने वाली वनस्पति तथा फसलों का पोषण भी इसी जल से होता है। यहां यह भी जानना जरुरी है कि अन्य देशों की तुलना में भारत में सालाना मीठे व स्वच्छ पानी की खपत अधिक होती है। विश्व बैंक के विगत चार साल के आंकड़ों के अनुसार घरेलू, कृषि एवं औद्योगिक उपयोग के लिए प्रतिवर्ष 761 बिलियन घन मीटर जल का इस्तेमाल होता है। विडंबना यह है कि भूजल के स्तर में लगातार गिरावट भी हो रही है। भौगोलिक परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो भारत के पठारी भाग भूजल की उपलब्धता के मामले में कमजोर हैं।
यहां भूजल कुछ खास भूगर्भिक संरचनाओं में पाया जाता है जैसे भ्रंश घाटियों और दरारों के सहारे। वहीं दूसरी ओर उत्तरी भारत के जलोढ़ मैदान हमेशा से भूजल में संपन्न रहे हैं। लेकिन अब उत्तरी व पश्चिमी भागों में भूजल के तेजी से दोहन से अभूतपूर्व कमी देखने को मिल रही है। गिरता भूजल सिर्फ महाराष्ट्र के मराठवाड़ा, उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड या बिहार के सीतामढ़ी तक ही सीमित नहीं है। पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों में भूजल स्तर 70 प्रतिशत तक नीचे पहुंच चुका है। आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान समय में भारत के 29 प्रतिशत विकास खंड भूजल के दयनीय स्तर पर हैं।
ऐसा माना जा रहा है कि 2025 तक लगभग 60 प्रतिशत विकास खंड चिंतनीय स्थिति में आ जाएंगे। हालांकि देश में जल संरक्षण तथा प्रबंधन कार्यक्रम को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए समय-समय पर अनेक उपाय किए गए हैं। मसलन 1945 में केंद्रीय जल आयोग का गठन किया गया जो राज्यों के सहयोग से देश भर में जल संसाधनों के विकास, नियंत्रण, संरक्षण तथा समन्वय को आगे बढ़ाता है। 1970 में केंद्रीय भू-जल बोर्ड का गठन किया गया। बोर्ड का मुख्य कार्य भू-जल संसाधनों के प्रबंधन, स्थायी एवं वैज्ञानिक विकास के लिए प्रौद्योगिकियों को विकसित करना तथा राष्ट्रीय नीति की निगरानी में उन्हें वितरित करना है। इसी तरह 1980 में राष्ट्रीय जल बोर्ड तथा 2006 में भू-जल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए सलाहकार परिषद का गठन किया गया।
2012 में राष्ट्रीय जल नीति तैयार किया गया जिसके तहत सुनिश्चित किया गया कि जल की उपलब्धता बढ़ाने के लिए वर्षा का प्रत्यक्ष उपयोग एवं अपरिहार्य वाष्पोत्सर्जन को कम करने का प्रयास होगा। देश में भूजल संसाधन की मात्रा एवं गुणवत्ता की स्थिति का पता लगाया जाएगा। जलवायु परिवर्तन के अनुरुप जल संसाधनों के संरक्षण तथा अनुरुप प्रौद्योगिकी विकल्प को आजमाया जाएगा। औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जल उपयोग हेतु परियोजना मूल्यांकन एवं पर्यावरणीय अध्ययन का विश्लेषण किया जाएगा।
लेकिन सच तो यह है कि इन प्रयासों के बावजूद भी भारत में जल संरक्षण एवं प्रबंधन हेतु व्यापक स्तर पर संचालित कार्यक्रम परिणाम की दृष्टि से प्रभावी साबित नहीं हुए है। भूजल के उपयोग को नियंत्रित करने के लिए एक स्पष्ट प्रभावी कानूनी ढांचे का अभाव बना हुए है। नतीजा भूजल न सिर्फ बुरी तरह प्रदूषित हो रहा है बल्कि उसके स्तर में भी भारी गिरावट आ रही है। हैरान करने वाला यह कि इस गहराते संकट का असर दिखने के बाद भी इसके बचाव के लिए लिए कोई कारगर पहल नहीं हो रही है।
नतीज हर वर्ष अरबों घन मीटर भूजल दूषित हो रहा है। यह समझना होगा कि भारत सालाना जल की उपलब्धता के मामले में चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों से बहुत पीछे है। ऐसे में अगर दूषित व गिरते भूजल को बचाने का समुचित उपाय नहीं किया गया तो हालात खतरनाक स्तर तक पहुंच सकते है। याद होगा अभी गत वर्ष पहले ही सर्वोच्च अदालत ने नदियों में बढ़ते प्रदूषण और उससे लोगों की सेहत पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को लेकर कड़ा रुख अख्तियार किया। सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा कि साफ पर्यावरण और प्रदूषण रहित जल व्यक्ति का मौलिक अधिकार है और इसे उपलब्ध कराना कल्याणकारी राज्य का संवैधानिक उत्तरदायित्व है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान का अनुच्छेद-21 जीवन का अधिकार देता है और इस अधिकार में गरिमा के साथ जीवन जीने और प्रदूषण रहित जल का अधिकार शामिल है। सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 47 और 48 में जन स्वास्थ्य ठीक करना और पर्यावरण संरक्षित करना राज्यों का दायित्व है। साथ ही प्रत्येक नागरिक का भी कर्तव्य है कि प्रकृति जैसे वन, नदी, झील और जंगली जानवरों का संरक्षण व रक्षा करे। याद होगा गत वर्ष पहले भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने जारी अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया कि दिल्ली के पेयजल की गुणवत्ता कम हुई है जिससे जलजनित बीमारियों का खतरा बढ़ गया है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के पेयजल के नमूने 19 मानदंडों में से किसी पर खरे नहीं पाए गए थे। कमोवेश ऐसी ही स्थिति देश के तकरीबन सभी राज्यों की है। उचित होगा कि सरकार दूषित और गिरते भूजल स्तर की समस्या से निपटने के लिए दीर्घकालीन उपायों के साथ ही कुओं व तालाबों के संरक्षण, सिंचाई के स्रोतों के विकास और जल स्रोतों के पुनर्जीवन के बारे में जल मित्रों के जरिए जनभागीदारी के साथ जागरुकता फैलाने के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों को गति दे। घटते भूजल संसाधनों के संवर्धन के लिए समुद्र में प्रवाहित होने वाले अतिरिक्त वर्षा अपवाह का संरक्षण करे और फिर उसकी सहायता से पुनः पूरण द्वारा भूजल संसाधनों में वृद्धि करे।
जलाशयों के जल का समय-समय पर परीक्षण करा नियमित सफाई सुनिश्चित करे। जनसाधारण में जल प्रदूषण के प्रति जागरुकता फैलाए। तटवर्ती भागों में समुद्री जल का निर्लवणीकरण करके जल का विभिन्न कार्यों में प्रयोग करे। राष्ट्रीय स्तर पर दूषित भूजल की रोकथाम के लिए योजना बनाकर उसका प्रभावी क्रियान्वयन करने की भी जरुरत है। यह समझना होगा कि भूजल समस्त वनस्पतियों, पशुओं तथा मानव जीवन का आधार है। उसे प्रदुषण से बचाने के लिए व्यवहारिक पहल की आवश्यकता है। सिर्फ कागजों पर योजनाओं को उकेरने मात्र से नतीजे अनुकूल नहीं होंगे।