• December 24, 2024

लोक आकांक्षा ही सर्वोपरि!

 लोक आकांक्षा ही सर्वोपरि!

दो महीने के दुरंत निदाघ-काल में सात चरणों में फैला लोकसभाई चुनाव नेताओं, चुनाव कर्मियों और वोटरों सबके लिए घोर तपस्या से कम न था। विश्व के विशालतम आम चुनाव के दौरान देश की जनता को अपने भारतीय लोकतंत्र की चाल-ढाल की विलक्षण छटाएं देखने को मिलीं। ग्यारह लाख और आठ लाख से ज्यादा के अंतर से लोग जीते तो नोटा का भी एक जगह डेढ़ लाख वोटरों ने इस्तेमाल किया। निर्वाचन आयोग पर तोहमतें लगती रहीं पर उसने मुस्तैदी और निष्पक्षता से कार्य किया । इस चुनाव में एक ओर दस सालों से काबिज राजसत्ता को कायम रखने के लिए उद्यत एनडीए था तो दूसरी ओर उसे सत्ता से बेदखल करने की फिराक में जुटा फुटकर दलों का फौरी इंडी गठजोड़ था । सत्ता-संघर्ष के नाटक के हर अंक में विविध दृश्यों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही कथानक के केंद्रविंदु बने रहे। इसके लिए आक्रामक रुख अपनाते और धिक्कारते स्वर में इंडी गठबंधन विकास कार्यों, आर्थिक प्रगति, गरीबों तथा पिछड़े तबकों की उन्नति के उपायों और आधार-संरचना के तीव्र विकास को झुठलाता रहा। भारत की आर्थिक उन्नति, निखरती अंतरराष्ट्रीय छवि और राष्ट्रीय गौरव बोध से भी उनका कोई वास्ता नहीं रहा। कांग्रेसी अगुआई में विपक्षी जोड़-तोड़ का एकल एजेंडा था मोदी से मुक्ति । इसलिए वे मोदी सरकार की उपलब्धियों को सिरे से खारिज करते रहे पर उनके पास भारत के लिए अपना कोई रचनात्मक खाका नहीं था ।

चालू योजनाओं में फेरबदल कर वे अपनी घोषणाएं पेश करते रहे । चुनावी सरगर्मी कभी नर्म-गर्म रही तो कभी तल्ख हुई। एक ओर से अतिरेक का उत्तर भी अतिरेक से ही दिया जाता रहा। ऐसे क्षण भी आए जब शिष्टाचार की मर्यादाएं टूटती नजर आईं और निर्वाचन आयोग ने प्रचारकों को सख्त हिदायत दी और कुछ को प्रचार कार्य से अलग भी किया । सत्ताधारी दल में ज्यादा ही आत्मविश्वास था कि चार सौ से अधिक सीटों को जीतेंगे परंतु उसे सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा तो मिला पर पिछले बार से कम सीटें ही मिल सकीं। लगातार दस वर्षों का कार्यकाल नेता और जनता दोनों को थका, उबा कर संतृप्त करने वाला भी होता है। मोदी काल में कई मोर्चों पर सक्रियता दिखती रही। उसी का फल है कि छह दशकों पहले का इतिहास दुहराते हुए एनडीए तीसरी बार लगातार सरकार बनाने की ओर अग्रसर हो रही है। कांग्रेस ने पिछले चुनाव की तुलना में अच्छा प्रदर्शन किया।

चुनाव के दौरान तरह–तरह के सवाल उठाए जाते रहे। सनातन और राम-मंदिर निर्माण को लेकर भी अनर्गल प्रश्न उछालते रहे। जनता-जनार्दन ने जिस उत्साह से राम-मंदिर का स्वागत किया और तीन महीने में ही डेढ़ करोड़ लोग दर्शन करने पहुंचे वह भावनात्मक एकता और मंदिर की बिना शर्त स्वीकृति का प्रमाण है। इस दौरान हिंदू और हिंदुत्व के कई रूप बनते-बिगड़ते दिखे। यह खेद की बात है कि हिंदू जीवन दृष्टि या जीवनशैली जो करोड़ों हिंदू आज भी जी रहे हैं वह सिद्धांत ही नहीं व्यवहार में भी इतना समावेशी है कि सारी विविधताओं को समेट कर धारण करता है। संशयात्मक आत्मबोध देश के गौरव और स्वाभिमान के रास्ते में भी अड़चन खड़ा करता है। इसके चलते ‘भारतीय’ कहलाना और ‘भारतीयता’ की बात करना संकुचित मानसिकता को बतलाता है । सीमित क्षेत्रीय बनाम व्यापक राष्ट्रीय आकर्षणों के बीच की रस्साकसी चलती रही। पड़ोसी देश की चिंता न करने का हवाला भी दिया गया । कहा गया उसके पास आणविक हथियार है। विपक्षी पार्टियों ने अपनी शक्ति-सामर्थ्य के विंदु गिनाने में जितना श्रम किया उससे अधिक विरोधी के छिद्रान्वेषण करने में लगाया और परिहास किया ।

शक्ति और सामर्थ्य के नाम पर दिवास्वप्न सरीखे प्रलोभनों की लम्बी सूची जरूर तैयार की जाती रही कि अगर सरकार बन गई तो किस-किस समुदाय को क्या-क्या दिया जाएगा । चुनाव के बीच अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक के विवाद को भी तूल दिया गया। बहुसंख्यक होने से हिंदू और हिंदुत्व को संशयग्रस्त पहचान के रूप में स्थापित करना और अल्पसंख्यक के लिए खतरे से रक्षा का नाटक अपने वोट सुरक्षित करने के लिए किया जाता रहा। इसे राष्ट्रबोध और देश, संस्कृति सभ्यता सबको हाशिए पर धकेलने का उपक्रम बन गया। इसी तरह जाति को लेकर टिकट बांटने और मतदाताओं को अपने पक्ष में लेने की कोशिश सब दलों ने की । जाति समाज की एक सच्चाई है और सभी दल उसकी निंदा करते हैं परंतु उसी का सहारा भी लेना चाहते हैं, आरक्षण भी देना चाहते हैं। इसका राजनैतिक लाभ लेने की कोशिश ताजा उदाहरण पश्चिम बंगाल से आया है जहां 77 समुदायों को टीएमसी की सरकार ने गलत ढंग से ओबीसी की श्रेणी में डाल दिया था जिसे उच्च न्यायालय ने गैर संवैधानिक पाकर निरस्त कर दिया था । चुनावी नतीजों ने जाति के बनते बिगड़ते समीकरणों की भूमिका फिर दिखा दी।

अब चौसठ करोड़ जनता के वोट के आधार पर नतीजे आ चुके हैं। ये नतीजे बताते हैं कि छोटे क्षेत्रीय दलों की स्थिति डांवाडोल हुई है और राष्ट्रीय दलों के साथ आपसी तालमेल कमजोर रही। विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय मुद्दे छाए रहे पर सबके मन में केंद्र में एक मजबूत सरकार लाने की इच्छा थी । भाजपा को इससे लाभ मिला । भाजपा दक्षिण भारत में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रही। मोदी ने जातियों से ऊपर उठ कर सनातन जैसे उदार और समावेशी विचार को आगे बढ़ाया जिसमें सभी जातियों के लोग जुड़ सके। भाजपा के संकल्प-पत्र में देश के समग्र विकास की योजना की झलक थी जिसे उत्साह के साथ जनता के साथ बार-बार साझा किया गया। चुनाव के परिणाम जनता के विश्वासमत की पुष्टि करते हैं। चुनावी परिणाम प्रधानमंत्री की जनस्वीकृति पर राष्ट्रीय स्तर पर मुहर लगा रहे हैं।

कभी व्यक्ति और कभी पार्टी को लेकर तोहमतें लगने के दौर भी लगातार चलते रहे । व्यवस्था के प्रश्न भी उठते रहे जिनमें ईवीएम की खामियां और निर्वाचन आयोग पर भी पक्षपात का आरोप खास रहा। जनता ने आत्मावलोकन और बाह्यावलोकन दोनों किया। उसे विचार की किल्लत कई तरह से दिखी। क्या और कब कहा जाए इसका विवेक न होना बड़ा खला। गौरतलब है कि चुनाव के दौरान करोड़ों रुपये के कैश जब्त हुए। विरुद्धों के सामंजस्य को दर्शाते आआप, कांग्रेस और टीएमसी जैसे दल तथा शेष इंडी के बीच के आपसी रिश्ते अवसर पर टिके थे। इस बीच राजनीतिज्ञों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता और अस्वस्थ मानसिकता के साथ समाज के शोषण की घटनाओं ने भी लोगों को उद्वेलित किया। कई पार्टियों के दावों, वादों, मेहरबानियों, आरोपों और प्रत्यारोपों की भाषा जमीनी वास्तविकताओं की जगह दिवास्वप्न को रेखांकित कर रही थी । विभिन्न राजनैतिक दलों के नाद और निनाद के तुमुल स्वरों के बीच चुनावी प्रचार अभियानों से जनता के सामने चकित, भ्रमित और भयभीत होने की स्थितियां भी बार-बार आती रहीं।

लोकतंत्र के आसन्नविनाश, संविधान का समापन, आरक्षण नीति का समापन आदि के खतरों तथा राजकीय तंत्र का दुरुपयोग आदि आरोपों को लेकर भारत में लोकतंत्र के भविष्य पर लगातार प्रश्नचिह्न लगाया जाता रहा। हास्यास्पद टिप्पणियों और तर्कहीन अधकचरे प्रस्तावों के साथ कर्ज माफी, विभिन्न समुदायों को सहायता राशि की सौगातें बांटने, आरक्षण की सीमा बढ़ाने और उसे धर्म समुदाय की सदस्यता से जोड़ने की घोषणाओं से जनता को लुभाने के प्रयास किए जाते रहे। दूसरी ओर मोदी सरकार ने एक दशक में जमीनी परिस्थिति को बदलने का काम किया था जिसका सीधा अनुभव जनता को हुआ था। पूरे चुनाव में मोदी की लगन, उत्साह, रणनीति, संवाद-कौशल और देश के साथ प्रतिबद्धता असंदिग्ध बनी रही।

इस बार का जनादेश नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता की पुष्टि करता है। अमृत-काल में विकसित भारत का संकल्प लेकर उस दिशा में अग्रसर होने को उद्यत मोदी भारत के प्रतिनिधि के रूप में अब पुन: प्रतिष्ठित हो रहे हैं। एक समर्थ, शक्तिशाली और संभावनाशील भारत की छवि को अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी के साथ प्रधानमंत्री मोदी की रीति-नीति परीक्षा की कसौटी पर उतरेगी। महंगाई और रोजगार के सवाल नीतिगत हस्तक्षेप की मांग करते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषय अभी भी कड़ी चुनौती दे रहे हैं जहां अतिरिक्त संसाधन का निवेश और व्यवस्थागत परिवर्तन बेहद लाजमी हो गया है। यदि समाज विशेषतः युवा वर्ग स्वस्थ और सुशिक्षित नहीं होगा तो विकास के सपने सपने ही रह जाएंगे। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ये विषय अभी भी बड़े ही उपेक्षित हैं।

इसी तरह से न्याय व्यवस्था और उसके कायदे कानून तकनीकी दृष्टि से बड़े पेचीदे, बेहद खर्चीले और अनावश्यक रूप से समयसाध्य बने हुए हैं जिनसे न्याय पाने में बिलंब होता है और लोग बेवजह सताए जाते हैं। इनमें जरूरी बदलाव अत्यंत आवश्यक है। इसी तरह व्यवस्थागत सुधार ले आने की आवश्यकता भी सभी महसूस करते हैं। गरीबी से जो निकल रहे हैं उनका पुनर्वास भी जरूरी है। नौकरशाही के जोर के आगे उसमें बदलाव लाना टेढ़ी खीर है पर उसे करने के अलावा कोई चारा भी नहीं है । विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच की चौड़ी खाई पाटना भी सरल नहीं है। भारत जैसे विविधतापूर्ण और विशाल देश की आकांक्षाओं को आकार देने का ऐतिहासिक कार्य प्रभावी नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा है। आशा है नई सरकार इन प्रश्नों पर वरीयता से ध्यान देगी और कार्रवाई करेगी।

Digiqole Ad

Related Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *