• October 19, 2024

(गुरु पूर्णिमा/21जुलाई/ विशेष) गुरु की प्रतिष्ठा स्थापित हो!

 (गुरु पूर्णिमा/21जुलाई/ विशेष) गुरु की प्रतिष्ठा स्थापित हो!

गिरीश्वर मिश्र

आज की दुनिया में गूगल गुरु, चैट जी पी टी, सिरी, इलेक्ट्रा आदि-आदि छोटे बड़े अनेक कृत्रिम मेधा (एआई) वाले गुरु दस्तक दे चुके हैं। उनकी भरमार होने के बावजूद गुरु जी, मास्टर जी, उस्ताद जी, और सर अभी भी महत्वपूर्ण बने हुए हैं । उनसे जो विद्यार्थी को जो जीवंत संस्पर्श मिलता है उसका कोई विकल्प नहीं है। गुरु से दीक्षा, निर्देश पाने और पाठ पढ़ने का अपना ही रस और आकर्षण होता है। गुरु की झिड़की, डांट, प्यार और दुलार सभी आशीर्वाद होता है क्योंकि उसमें शिष्य के लिए कल्याण का भाव छिपा रहता है । प्राचीन काल से ही लोक में यह प्रसिद्धि व्याप्त है कि गुरु की महिमा अपरिमित है और इसलिए अवर्णनीय है। उसका विस्तार इतना है कि उसे समेटना और व्यक्त करना किसी सामान्य आदमी के बस की बात नहीं । उपनिषदों में बड़ी सारी कथाएं गुरुओं को लेकर हैं। भारतीय समाज में गुरु एक अकेला व्यक्ति न रह कर एक संस्था का रूप ले चुका है और गुरु – शिष्य की महान जोड़ियों की अनेक प्रचलित कथाएं विश्वविश्रुत हैं। श्रीकृष्ण के गुरु सांदीपनि हैं तो श्रीराम के विश्वामित्र । देवताओं के गुरु वृहस्पति तो राक्षसों के शुक्राचार्य। कौरवों और पांडवों दोनों के गुरु द्रोणाचार्य थे। चंद्रगुप्त के गुरु चाणक्य थे तो शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास थे। गुरु स्वतंत्रचेता और स्वाधीन होता है। इस तरह की परम्परा आगे भी चलती रही । समाज, संस्कृति और राजनीति हर क्षेत्र में गुरु की भूमिका क्रांतिकारी रही है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला सबका पूज्य गुरु महनीय होता है।

शिक्षा के संदर्भ में गुरु शिष्य की प्रतिभा के उन्मेष को संभव करता है। वह शिष्य में छिपी संभावना को आकार देता है। वह निर्माता की भूमिका में रहता है । चूंकि संभावना का ओर-छोर नहीं होता उसकी पैमाइश कठिन होती है। इसीलिए गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर ही नहीं परब्रह्म का साक्षात रूप कहते हुए सर्वाधिक आदर दिया जाता है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि गुरु अपने शिष्य का रूपांतरण करता है । वह सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की तरह अपने शिष्य को नया कलेवर या नया जन्म देता है। वह विष्णु और महेश की तरह शिष्य का भरण-पोषण और रक्षा करता है, उसे अभय प्रदान करता है और यशस्वी बनाता है । ऐसे में यदि गुरु की सत्ता को ज्ञानरूपी परब्रह्म के मूर्तिमान रूप को प्रकट करने वाला कहा जाए तो यह स्वाभाविक ही है । गुरु कोई निष्क्रिय ठोस भौतिक पदार्थ न होकर क्रिया के रूप में होता है जो शिष्य को ज्ञान की राह पर ले जाने वाली होती है। ज्ञान की यात्रा अज्ञात और नई जगह की यात्रा जैसी होती है। इस यात्रा में जहां एक ओर अज्ञात का जोखिम तथा भय होता है वहीं नए अनुभव का आनंद और दृष्टि के विस्तार का आकर्षण भी रहता है। अपरिचय से उपजी असुरक्षा और नव्य-नूतन से जुड़ी रमणीयता इन दो के द्वन्द्व के बीच ज्ञान के दुर्गम पथ पर शिष्य की यात्रा तय होती है। गुरु इस यात्रा-पथ को प्रकाशित करता है और विद्यार्थी का मार्ग प्रशस्त करता है, उसे सुगम बनाता है। गुरु विद्यार्थी को ज्ञान के क्षेत्र में पारंगत बना कर उसे अपने से भी आगे जाने की कामना करता है। शिष्य सामान्य जीवन में अग्रसर होता है और गृहस्थ के रूप में अपने दायित्व का निर्वाह करता है। भारतीय परम्परा में गुरु यह कार्य निरंतर करता चला आ रहा है। वह ज्ञान के संरक्षक, संशोधक, वाहक और प्रदाता की भूमिकाओं में कार्य करता आ रहा है। वह इन सबके बीच संतुलन बना कर चलता है।

शिष्य के रूप में विद्यार्थी एकांत भाव से ज्ञान की साधना और स्वयं अपने परिष्कार के लिए समर्पित रहता है। वस्तुतः वह शिक्षा के द्वारा संस्कृत होता है। इस क्रम में उसके अज्ञान और दोषों का परिहार तथा गुणों का प्रस्फुटन होता है । गुरु और शिष्य के बीच भरोसे और विश्वास का प्रगाढ़ रिश्ता होता है जिसके आधार पर अगली पीढ़ी के लिए ज्ञान का उद्घाटन और ग्रहण का कार्य पूरा होता है। यह शिक्षा की यह प्रक्रिया वस्तुतः दुतरफा होती है जिसकी जिम्मेदारी दोनों पर टिकी होती है। यह अवश्य है कि गुरु आयु और ज्ञान दोनों ही दृष्टि से शिष्य की तुलना में श्रेष्ठ होता है। गुरु एक आदर्श या माडेल के रूप में आचरण को व्यवहार में उतार कर दिखाता है। इस तरह वह ज्ञान के प्रवाह को संभव बनाता है। ज्ञान के महत्व को भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही महत्व मिलता आ रहा है। अविद्या या अज्ञान दुःख का सबसे बड़ा कारण माना गया है। ज्ञान के बिना कष्टों से छुटकारा नहीं मिल सकता- ऋते ज्ञानान्नमुक्ति: । इसके लिए नगर से दूर जंगल में गुरुकुल बने जहां बिना किसी तरह के विघ्न के शिक्षा दी जा सके। गुरु सिर्फ ज्ञान का हस्तांतरण नहीं करता था बल्कि यह भी सुनिश्चित करता था कि उस ज्ञान का प्रयोग हो रहा है कि नहीं। वह पुराने को न आंख मूंद कर सही मानता था और न नए की नए होने के कारण उपेक्षा करता था। वह दोनों की जांच-बूझ कर जो प्रामाणिक निकलता था उसे स्वीकार करता था। ज्ञान की दुनिया में अनुकरण और अनुसरण की नहीं आलोचक बुद्धि और सर्जनात्मक दृष्टि का मूल्य होता है ।

वर्तमान परिस्थिति में ज्ञान के आदान-प्रदान की व्यवस्था सामाजिक संदर्भ में घटित होती है और उसका सम्पादन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों के अधीन हो रहा है। आस-पास की दुनिया में हो रही अच्छी बुरी घटनाएँ उसे प्रभावित ही नहीं आच्छादित भी कर रही हैं। आज गुरु और शिष्य दोनों ही इस बदलते परिवेश से प्रभावित हो रहे हैं । आज शिक्षा केंद्र से बाहर की दुनिया ही उनके ध्यान के केंद्र होता है। उनकी भावनाएँ और प्रेरणाएं उसी परिवेश में पुष्पित-पल्लवित होती हैं । परिवार, बाजार, मीडिया और समुदाय के घेरों के बीच प्रौद्योगिकी के अधीन वह जीने का आदी हो रहा है। अध्यापक परीक्षा-गुरु हो गया है और वित्त की आकांक्षा प्रबल होती जा रही है। नैतिक मूल्य के प्रतिबद्धता घट रही है और शिक्षक अपने कार्य को दूसरे व्यवसायों की ही तरह देखने लगा है। गुरु को भी समाज में अब पहले जैसा आदर नहीं मिलता। इस दुरवस्था के कई कारण हैं। सरकार द्वारा बढ़ती उपेक्षा के कारण भारतीय शिक्षक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है और शिक्षा की गुणवत्ता घट रही है । निजीकरण और वैश्विक प्रवृत्तियों के असर में समान कार्य के लिए शिक्षकों को वेतन और अन्य सुविधाएं भी एक सी नहीं रह सकी हैं। इन सबके चलते शिक्षा कामचलाऊ और निष्प्राण होती जा रही है। गुरु की प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना से ही सार्थक शिक्षा आयोजित हो सकेगी और विकसित भारत के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकेंगे।

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