(स्मृति शेष) आदर्श स्थापित कर कए बुद्धदेब भट्टाचार्य
वर्ष 2022 में पद्म पुरस्कारों की घोषणा हुई, तो उसमें पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य का नाम पद्मभूषण प्राप्तकर्ता के रूप में शामिल था। इसी सम्मान के लिए तब कांग्रेस में रहे गुलाम नबी आजाद के नाम की भी घोषणा हुई। भट्टाचार्य ने सम्मान लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि इसकी जानकारी उन्हें पहले से नहीं थी। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने भट्टाचार्य के बहाने अपने साथी गुलाम नबी आजाद पर व्यंग्य कसा था। उन्होंने कहा कि बुद्धदेब भट्टाचार्य ऐसे नेता हैं, जो ‘आजाद’ रहना चाहते हैं, ‘गुलाम’ नहीं। जयराम रमेश ने भले ही अपने साथी आजाद पर व्यंग्य किया हो, लेकिन आज लगता है कि उन्होंने जाने-अनजाने कम्युनिस्ट नेता बुद्धदेब भट्टाचार्य के व्यक्तित्व की सही प्रस्तुति कर दी थी। पश्चिम बंगाल में 34 साल तक वामपंथी शासन में से करीब 11 साल बुद्धदेब के नाम भी थे। उनके पहले 23 वर्षों तक ज्योति बसु राज्य के मुख्मंत्री रहे। बुद्धदेब के आजाद ख्याली को इस रूप में देखा जाना चाहिए कि उन्होंने उद्योगीकरण के लिए राज्य में विदेशी पूंजी तक को आमंत्रित किया। सिंगूर में टाटा को लाने के लिए वे पहचाने ही जाते हैं। आमतौर पर वामपंथी उदारीकरण नीति के खिलाफ रहा करते हैं। इसके विरुद्ध बुद्धदेब ने टाटा के नैनो कार के लिए भी सिंगूर में जगह दी। अलग बात है कि सिंगूर में भूमि विवाद के चलते लंबा आंदोलन चला और माना जाता है कि लंबे कम्युनिस्ट शासन की समाप्ति और ममता राज के आने के कारणों में सिंगूर मसला भी बहुत अहम रहा।
कम्युनिस्ट नेताओं के पद पर रहते वेतन-भत्ता आदि पार्टी को समर्पित करना आम बात है। बुद्धदेब ने भी यही किया। मुख्यमंत्री को मिलने वाली धनराशि वे पार्टी फंड में जमा कर दिया करते थे। उनके अपने खर्च के लिए पार्टी उसी धनराशि का एक हिस्सा उन्हें दिया करती थी। बताया जाता है कि बाद में भी पार्टी बुद्धदेब के दैनिक खर्च और इलाज आदि की व्यवस्था कर रही थी। परिवार से अति समृद्ध उनके पूर्ववर्ती ज्योति बसु ने भी यही किया। केरल के पहले मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद सीएम रहते साइकिल से कार्यालय जाया करते थे। उनका टाइप राइटर भी उनकी साइकिल के करियर पर ही बंधा होता था। मणिपुर के मुख्यमंत्री रहे माणिक सरकार के पास भी अपना कोई निजी आवास और वाहन नहीं था।
भट्टाचार्य का व्यक्तिगत जीवन और चारित्रिक विकास में परिवार की पृष्ठभूमि कहां तक काम आई होगी, यह भी विचारणीय और रोचक है। बंगाली ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए भट्टाचार्य ने मृत्यु के बाद अपना शरीर मेडिकल एजुकेशन के लिए दान कर देने की इच्छा जताई है। यह उस पृष्ठभूमि के साथ हुआ है कि उनके पितामह कृष्णचंद्र स्मृतितीर्थ संस्कृत विद्वान, पुजारी और प्रकांड विद्वान थे। उनकी लिखी पुस्तिका ‘पुरोहित दर्पण’ बंगाली हिंदू पुजारियों के बीच आज भी लोकप्रिय है। वर्तमान बांग्लादेश के मदारीपुर जिले से आने वाले कृष्णचंद्र स्मृतितीर्थ के पुत्र, यानी बुद्धदेब भट्टाचार्य के पिता नेपालचंद्र ने पुरोहिती से हटकर हिंदू धार्मिक सामग्री उपलब्ध कराने वाले पारिवारिक प्रकाशन, सारस्वत लाइब्रेरी का काम देखना स्वीकार किया। प्रसिद्ध कवि सुकांत भट्टाचार्य बुद्धदेब भट्टाचार्य के चाचा थे। बुद्धदेब ने अपनी जीविका के लिए स्कूल शिक्षक की नौकरी की और वहीं से कम्युनिस्ट आंदोलन में शरीक हुए। दरअसल, सादगी के मामले में गांधी जी ने जिस मुकाम पर आकर आदर्श बनाए, कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने वहां से शुरू किया। सादगी का अर्थ सिर्फ वस्त्र नहीं होते। गांधी ने खेत-खलिहान और लघु उद्योगों के योगदान तक राजनीति को पहुंचाया, कम्युनिस्ट इन इकाइयों के अंदर से उस राजनीति को संसद तक ले जाने के हिमायती हैं। अपवाद हर राजनीतिक दल में हैं, जो आदर्श प्रस्तुत करते हैं उनमें बुद्धदेब भट्टाचार्य भी शामिल हैं।