जीवन की जय-मृत्यु का क्षय
वैयक्तिक स्तर पर तो मृत्यु अपरिहार्य सत्य है, किन्तु प्रवाह रूप में जीवन धारा का सातत्य ही संसार को चलाये रखने वाली प्रक्रिया है। वर्तमान विकास यात्रा में प्रकृति के साथ आधुनिक संस्कृति का टकराव खतरनाक मोड़ पर पहुंचता जा रहा है। जिसने सतत जीवन धारा को ही खंडित करना आरंभ कर दिया है। इस संस्कृति का आधार विज्ञान, तकनीक का गुलाम होकर भेदवादी शक्तियों की ताकत बनता जा रहा है। समग्रतावादी आध्यात्मिक चिंतन, जो विश्व समाज को जोड़ने का काम करता है, हाशिए पर जा रहा है। जिसकी परिणति आत्ममुग्धता और अहंकार जनित युद्धों और पर्यावरण विध्वंस के रूप में हो रही है। यूनेस्को के संविधान की घोषणा के ये शब्द इस विषय में प्रासंगिक हैं: ” युद्ध मनुष्यों के मन में आरंभ होते हैं, पर्यावरण संबंधी समस्याएं भी मनुष्य के मन में ही आरंभ होती हैं। इसलिए वास्तविक रूप में मानवीय, बौद्धिक नैतिक पर्यावरण की नींव मानव मन में ही डालनी होगी।” वर्तमान विश्व समाज, विशेषज्ञ संचालित है।
विशेषज्ञ चीजों को टुकड़ों में विश्लेषण द्वारा समझते हैं। जिससे समग्र हित साधन की समझ गायब हो जाति है। जैसे एक विशेषज्ञ चिकित्सक शरीर का इलाज करेगा तो आंख, कान, नाक, गुर्दा, हृदय, के अनुसार करेगा। यदि गुर्दे का इलाज करते हृदय को हानि पंहुच जाए जिससे सारा शरीर दुष्प्रभावित हो जाए तो उस पर चिकित्सक का वश नहीं रहता। औद्योगिक विशेषज्ञता ने प्रकृति के मूल जीवनदायी तत्वों हवा, पानी, मिट्टी (भोजन) को ही संकट ग्रस्त कर दिया है। वायु प्रदूषण के लगातार बढ़ते स्तर के कारण ग्रीन हाउस प्रभाव के चलते वैश्विक तापमान में अभूत पूर्व वृद्धि हो रही है। औद्योगिक क्रांति के बाद से हो रही तापमान वृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडराने लगा है। दुनिया भर में बे-मौसमी और भारी बारिश, भयंकर समुद्री तूफान, बाढ़- सूखा- चक्र, भूस्खलन, और बर्फीले तूफानों का क्रम लगातार बढ़ता जा रहा है। अगर वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेट के भीतर नहीं रोका गया तो जलवायु परिवर्तन के परिणाम कितने भयंकर होंगे इस बात का अनुमान लगाना भी कठिन है। तापमान में 1 डिग्री वृद्धि तो हो ही चुकी है।
इसी मई में ही हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाएं हो चुकी हैं। ये सब असामन्य घटनाएं हैं। इसका दूसरा बड़ा प्रभाव ग्लेशियर पिघलने के रूप में सामने आ रहा है। यदि यही स्थिति रही तो 2050 तक दुनिया भर के अधिकांश ग्लेशियर समाप्त होने के कगार पर होंगे। इससे समुद्र की सतह ऊपर उठ जाएगी और समुद्र किनारे के कई देश, द्वीप और इलाके पानी में डूब जाएंगे। वेनजुएला ग्लेशियर समाप्त होने वाला पहला देश बनने जा रहा है। हिमालय और ध्रुवीय ग्लेशियर भी इसी परिणाम को प्राप्त होने वाले हैं। ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों के अचानक फट जाने का खतरा बना रहता है। जिससे भयानक बाढ़ें अचानक आने के चलते भारी जन-धन की हानि हो जाति है।
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम आदि राज्य पहले ही इस कारण आने वाली त्रासदियों को झेल चुके हैं। अभी सतलुज के पनढल में पिछले एक वर्ष में ही ग्लेशियर पिघलने से 52 नई झील निर्मित हो चुकी हैं। सैटेलाइट अनुदर्शन से खुलासा हुआ है कि यहां 2022 में 414 ग्लेशियल झीलें थीं अब यहां 466 झीलें हैं। वायु प्रदूषण से त्रस्त शहरों में वायु की गुणवत्ता सांस लेने के लिए सुरक्षित नहीं बची है। जिससे सांस की बीमारियों में भारी बढ़ोतरी हो रही है। छोटे बच्चे तक इनका शिकार हो रहे हैं। सड़क दुर्घटनाओं में वृद्धि का भी वायु प्रदूषण कारक बन रहा है। वायु गुणवत्ता सूचकांक में दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में दिल्ली प्रथम स्थान पर है जहां का वायु गुणवत्ता सूचकांक 483 है दूसरे स्थान पर लाहौर 371 अंकों के साथ और कोलकाता 206 अंकों के साथ तीसरे स्थान पर है।
जल प्रदूषण और अभाव के रूप में दूसरी बड़ी समस्या पेश हो रही है। मल-जल और औद्योगिक प्रदूषित जल नदियों में डालने के कारण देश की अधिकांश नदियां प्रदूषित हो गई हैं। जिनका जल पीने और अन्य उपयोग के लिए सुरक्षित नहीं बचा है। भू-जल भी प्रदूषित हो गया है जिसमें संखिया और अन्य धातु जनित प्रदूषण की मात्रा सुरक्षित स्तर से ज्यादा हो गई है। भू-जल अत्यधिक दोहन के कारण संकट में आ गया है। कई शहरों में स्थानीय आबादी के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध करवाना बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। इस सूची में बेंगलुरु पहले स्थान पर है। ग्लेशियर समाप्त होने से नदियों में सतत प्रवाह कम हो जाएगा, नदियां मौसमी हो जाएंगी जिनमें बरसात में तो बाढ़ का दृश्य होगा और अन्य मौसमों में पानी की कमी आ जाएगी। जिससे पेयजल और अन्न सुरक्षा के लिए जरूरी सिंचाई व्यवस्था भी गड़बड़ा जाएगी। पानी के लिए संघर्षों के नए युग का सूत्रपात हो जाएगा। माना जा रहा है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।
स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के चलते दुनिया की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है। जिसके साथ खाद्यान्नों की मांग भी बढती जा रही है। किन्तु कृषि योग्य भूमि घटती जा रही है। और जो है उसकी उत्पादकता घटती जा रही है। प्रति व्यक्ति भूमि भी आबादी में तेज वृद्धि के कारण कम होती जा रही है। रासायनिक कृषि के कारण भूमि का अत्यधिक दोहन संभव हुआ है जिसके चलते भूमि का स्थायी उपजाऊपन कम होता जा रहा है। वैश्विक कृषि भूमि क्षेत्र 2021 में 4।79 बिलियन हेक्टेयर था जो 2000 के मुकाबले 2 प्रतिशत कम था। अत्यधिक रासायनिक पदार्थों के प्रयोग, और जलवायु परिवर्तन के कारण भूमि की उपजाऊ शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। फसलों पर छिड़के गए रासायनिक जहरों का असर फसलों में भी कुछ प्रतिशत रह जाता है। जिसके कारण अनेक बीमारियां आदमी को घेर रही हैं।
पंजाब के कुछ हिस्से जहां अत्यधिक रासायनिक कीटनाशक दवाओं का प्रयोग हुआ उन्हें कैंसर बेल्ट से पहचाना जा रहा है। अगली बड़ी चिंता कचरे को ले कर है। खास कर प्लास्टिक कचरे के कारण नदियां खेत, और समुद्र पटते जा रहे हैं। लाख कोशिशों के बाद भी समाधान मिल नहीं पाया है। प्लास्टिक प्रदूषण हवा, पानी, मिटटी सभी जीवनदायी तत्वों को हानि पहुंचा रहा है, इसके साथ ही नैनो प्लास्टिक में तब्दील हो कर यह खाद्य शृंखला का हिस्सा बनता जा रहा है। प्लास्टिक का दुनिया में 1950 में उत्पादन 1।5 मिलियन टन था जो 2011 तक 280 मिलियन टन हो गया। जीवन की हर गतिविधि में प्लास्टिक का उपयोग अपरिहार्य हो चुका है। प्लास्टिक कचरे के सही निपटान के प्रति गंभीरता के अभाव के कारण यह गर्मी सर्दी में बाहर पड़ा रहता है और धूप के संपर्क से प्लास्टिक के छोटे-छोटे अदृश्य कण वातावरण में सब जगह फैल जाते हैं। यही नानो प्लास्टिक कहलाते हैं। मनुष्य के शरीर में भोजन
शृंखला के माध्यम से पहुंच कर ये कई स्वास्थ्य चुनौतियों को जन्म देते हैं। सांस के साथ फेफड़ों में जा कर सांस संबंधी बीमारियों का कारण बन सकते हैं। फेफड़ों की सांस् लेने की क्षमता को कम कर सकते हैं। ब्रेन बैरियर को लांघ कर ये दिमाग में जा कर कई मस्तिष्क संबंधी समस्याएं पैदा कर सकते हैं, जिसके प्रमाण सामने आने लगे हैं। अत: यह स्पष्ट होता जा रहा है कि वर्तमान जीवन पद्धति और उत्पादन प्रक्रिया न तो टिकाऊ हैं और न ही मानव जीवन को सुखी बनाने में सक्षम हैं। बल्कि नई-नई समस्याएं पैदा करने वाली हैं। अत: हर एक प्रक्रिया का मुल्यांकन करना और वैकल्पिक व्यवस्था के लिए गंभीर प्रयत्न करना अपरिहार्य होता जा रहा है। हम जीवनदायी हवा, पानी और भोजन व्यवस्था का कोई विकल्प तैयार नहीं कर सकते। इसलिए पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखने के प्रयास हमारी तमाम योजनाओं के मूल भाग होने चाहिए। अनावश्यक उपभोग की भूख को नियंत्रित करने के लिए महात्मा बुद्ध का तृष्णा क्षय का मंत्र भी उपयोगी हो सकता है।