• July 16, 2025

जैव ईंधन की ओर अग्रसर दुनिया -अरविंद जयतिलक

 जैव ईंधन की ओर अग्रसर दुनिया -अरविंद जयतिलक

यह सुखद है कि दुनिया जैविक ईंधन की ओर तेजी से अग्रसर है। उससे भी अच्छी बात यह कि विकसित देशो का हृदय तेजी से परिवर्तित हो रहा है और उन्होंने तय किया है कि कार्बन डाइआक्साइड के उत्पादन को वातावरण में कम करने के लिए कोयले की परियोजनाओं से दूर रहेंगे। उल्लेखनीय है कि गत वर्ष पहले कोप 23 नाम के संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग और वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए जैविक ईंधन के इस्तेमाल के लिए भारत समेत दुनिया के 19 देशों ने अपनी सहमति की मुहर लगा चुकी है। इस सम्मेलन में समृद्ध विकसित देशों ने एकजुटता दिखाते हुए भविष्य में कोयले से बिजली निर्माण बंद करने की शपथ ली। गौरतलब है कि जैविक ईंधन को बढ़ावा देने के लिए ही 10 अगस्त, 2016 को जैव ईंधन दिवस मनाया गया। यह दिवस प्रतिवर्ष गैर जीवाश्म ईंधन के प्रति जागरुकता पैदा करने के उद्देश्य से मनाया जाता है। तथ्य यह भी कि जीवाश्म ईंधन में सबसे अधिक गंदे और प्रदूषित कोयले से विश्व की तकरीनब 40 प्रतिशत बिजली का निर्माण होता है। थोड़ा इतिहास में जाए तो डीजल इंजन के आविष्कारक सर रुदाल्फ डीजल ने 10 अगस्त, 1893 को पहली बार मूंगफली के तेल से यांत्रिक ईंजन को सफलतापूर्वक चलाया था। उन्होंने शोध के प्रयोग के बाद भविष्यवाणी की थी कि अगली सदी में विभिन्न यांत्रिक इंजन जैविक इंधन से चलेंगे और इसी में दुनिया का भला भी है। इसलिए और भी कि संयुक्त राष्ट्र विश्व मौसम संबंधी संगठन के सालाना ग्रीनहाउस गैस बुलेटिन में कार्बन उत्सर्जन के आंकड़े चैंकाने वाले हैं। बीते साल धरती के वायुमंडल में जिस रफ्तार से कार्बन डाइआक्साइड जमा हुई उतनी पिछले लाखों वर्षों के दौरान नहीं देखी गयी। विशेषज्ञों का मानना है कि कार्बन उत्सर्जन का यह दर समुद्र तल में 20 मीटर और तापमान में 3 डिग्री इजाफा करने में सक्षम है। अगर ऐसा हुआ तो धरती का कोई कोना और कोई जीव सुरक्षित नहीं रह सकेगा। विशेषज्ञों का कहना है कि बीते कुछ दशकों में जिस गति से वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ी है, वह 25 लाख वर्ष पहले दुनिया से आखिरी हिम युग खत्म होने के समय हुई वद्धि से 100 गुना अधिक है। वैज्ञानिकों के मुताबिक इससे पहले 30 से 50 लाख वर्ष पूर्व मध्य प्लीयोसीन युग में वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड 400 पीपीएम के स्तर पर पहुंचा था। तब सतह का वैश्विक औसत तापमान आज के समय से 2-3 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इसके चलते ग्रीनलैंड और पश्चिमी अंटाकर्टिका की बर्फ की चादरें पिघल गयी। इससे समुद्र का स्तर आज की तुलना में 10-20 मीटर ऊंचा हो गया था। 2016 की ही बात करें तो कार्बन डाइआक्साइड की वृद्धि दर पिछले दशक की कार्बन वृद्धि दर से 50 प्रतिशत तेज रही। इसके चलते औद्योगिक काल से पहले के कार्बन स्तर से 45 प्रतिशत ज्यादा कार्बन डाइआॅक्साइड इस साल उत्सर्जित हुआ। 400 पीपीएम का स्तर हालिया हिम युगों और गर्म काल के 180-280 पीपीएम से कहीं अधिक है। उसका मूल कारण यह है कि 2016 में कोयला, तेल, सीमेंट का इस्तेमाल व जंगलों की कटाई अपने रिकाॅर्ड स्तर पर पहुंच गयी। अल नीनो प्रभाव ने भी कार्बन डाइआॅक्साइड के स्तर में इजाफा करने में बड़ी भूमिका निभायी है। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि समय-समय पर कार्बन उत्सर्जन की दर में कमी लाने का संकल्प व्यक्त किया गया लेकिन उसे मूर्त रुप नहीं दिया गया। 2015 में पेरिस जलवायु समझौते के तहत इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान वृद्धि को औद्योगिक काल से पहले के तापमान से दो प्रतिशत से कम रखना तय हुआ था लेकिन उसका पालन नहीं हुआ। गौर करें तो आज की तारीख में भारत और चीन जहरीली गैस सल्फर डाइआॅक्साइड के शीर्ष उत्सर्जक देशों में शुमार हैं। सल्फर डाइआॅक्साइड मुख्यतः बिजली उत्पादन के लिए कोयले को जलाने पर उत्पन होती है। इससे एसिड रेन और धुंध समेत स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याएं जन्म लेती हैं। चीन ने भले ही सल्फर डाइआॅक्साइड का उत्सर्जन अत्यधिक कम कर दिया है लेकिन वहां की हवा अभी भी जहरीली बनी हुई है। बीजिंग में धंुध और प्रदुषण की समस्या के पीछे शहर के पास स्थित कोयला आधारित फैक्टरी और उर्जा संयंत्र हैं। भारत की बात करें तो यहां पिछले एक दशक में सल्फर डाइआॅक्साइड के उत्सर्जन में 50 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। देश में 2012 में कोयला आधारित सबसे बड़े उर्जा संयंत्र की शुरुआत की गयी लेकिन चीन की तरह उत्सर्जन रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए। यहां समझना होगा कि चीन में कोयले का इस्तेमाल 50 प्रतिशत और बिजली उत्पादन 100 प्रतिशत बढ़ा है। लेकिन इसके बावजूद भी चीन ने विभिन्न तरीकों से उत्सर्जन को 75 प्रतिशत तक घटाया है। चीन ने वर्ष 2000 के बाद से ही उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य तय करने और उत्सर्जन की सीमा घटाने के लिए कारगर नीतियों को अमल में लाना शुरु किया और वह इसमें काफी हद तक सफल भी रहा। भारत को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। इसके लिए सबसे बेहतरीन उपाय जैविक ईंधन का इस्तेमाल है। यह उर्जा का महत्वपूर्ण स्रोत है और इसका इस्तेमाल भी सरल है। इसका देश के कुल ईंधन उपयोग में एक-तिहाई का योगदान है और ग्रामीण परिवारों में इसकी खपत तकरीबन 90 प्रतिशत है। यह प्राकृतिक तौर से नष्ट होने वाला तथा सल्फर एवं गंध से मुक्त है। भारत में जैविक ईंधन की वर्तमान उपलब्धता तकरीबन 120-150 मिलियन मीट्रिक टन प्रतिवर्ष है जो कृषि और वानिकी अवशेषों से उत्पादित है और जिसकी उर्जा संभाव्यता 16000 मेगावाॅट से अधिक है। जैविक ईंधन जीवाश्म ईंधन की तुलना में एक स्वच्छ ईंधन है। यहां दोनों का फर्क समझना आवश्यक है। जीवाश्म ईंधन उसे कहते हैं जो मृत पेड़-पौधे और जानवरों के अवशेषों से तैयार हुआ जबकि जैव ईंधन उसे कहते हैं जो पृथ्वी पर विद्यमान वनस्पति को रासायनिक प्रक्रिया से गुजारकर तैयार किया जाता है। उदाहरण के लिए गन्ने के रस को अल्कोहल में बदलकर उसे पेट्रोल में मिलाया जाता है। या मक्का के दानों में खमीर उठाकर उससे ईंधन तैयार किया जाता है। इसके अलावा जैट्रोपा, सोयाबीन और चुकंदर इत्यादिस से भी ईंधन तैयार किया जाता है। अच्छी बात यह है कि जैविक ईंधन कार्बन डाइआॅक्साइड का अवशोषण कर हमारे परिवेश को स्वच्छ रखता है। अगर इसका इस्तेमाल होता है तो इससे ईंधन की कीमतें घटती हैं और पर्यावरण को भी कम नुकसान होता है। यही नहीं अगर भारत में कृषि क्षेत्र को जैविक ईंधन के उत्पादन से जोड़ दिया जाए तो किसानों का भला होगा। सरकार को जैविक ईंधन के इस्तेमाल को प्रचलन में लाने के लिए बढ़ावा देना चाहिए। गौरतलब है कि ब्राजील में जैविक ईंधन तैयार करने के लिए पेट्रोलियम उत्पादों में 22 प्रतिशत तक इथेनाॅल मिलाया जाता है। अगर भारत भी ब्राजील की राह अख्तियार करे तो इससे कच्चे तेल के आयात में 22 प्रतिशत तक की कमी आएगी और इससे विदेशी मुद्रा को बचाया जा सकेगा। ऐसा नहीं है कि भारत जैविक ईंधन को लेकर तत्पर नहीं है। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति को 11 सितंबर, 2008 को मंजूरी दी जा चुकी है। राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति में परिकल्पना की गयी है कि जैव ईंधन यानी बायोडीजल और जैव इथेनाॅल को घोषित उत्पादों के तहत रखा जाए ताकि जैव ईंधन के अप्रतिबंधित परिवहन को राज्य के भीतर और बाहर सुनिश्चित किया जा सके। नीति में बताया गया है कि कोई कर जैव डीजल पर नहीं लगना चाहिए। यह भी सुनिश्चित हुआ है कि तेल विपणन कंपनियों द्वारा जैव इथेनाॅल की खरीद के लिए न्यूनतम खरीद मूल्य उत्पादन की वास्तविक लागत और जैव-इथेनाॅल के आयातित मूल्य पर आधारित होगा। बायो डीजल के मामले में न्यूनतम खरीद मूल्य वर्तमान रिटेल डीजल मूल्य से संबंधित होगा। लेकिन यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सारी कवायद कागजी है। जब तक इसे मूर्त रुप नहीं दिया जाएगा तब तक जैविक ईंधन के लक्ष्य को साधना कठिन होगा और ग्लोबल वार्मिंग एवं वायु प्रदूषण से निपटने की चुनौती जस की तस बरकरार रहेगी।

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Rama Niwash Pandey

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