• October 17, 2025

खादी की रिकॉर्ड ब्रिकी और स्वदेशी आंदोलन

 खादी की रिकॉर्ड ब्रिकी और स्वदेशी आंदोलन

खादी का स्वर्णिम काल फिर से लौट रहा है, क्योंकि इसकी ब्रिकी नए आयाम गढ़ रही है। बीते कुछ सालों में तो कमाल ही कर दिखाया है। घोर मॉर्डन युग और पहनावे के लिहाज से मन मस्तिष्क पर हावी हो चुकी ब्रांडेड लिबास पश्चिमी सभ्यता के बीचों बीच लोगों का खादी को अपनाना किसी चमत्कार से कम नहीं माना जाएगा। लेकिन ये चमत्कार वास्तव में खादी ने किया है। अधिकृत रूप से पिछले सप्ताह खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड ने बीते दस वर्षों के आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। आंकड़ों के अनुसार, खादी की ब्रिकी के पूर्व के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त हो गए हैं। खादी के विभिन्न उत्पादनों की बिक्री में 400 फीसदी का उछाल हुआ है और इसके उत्पादन में 315 प्रतिशत की बंपर बढ़ोतरी भी दर्ज हुई है। यही नहीं, रिकॉर्ड स्तर पर 81 फीसदी नए रोजगार सृजन भी हुए हैं। 2022-23 के वित्तीय वर्ष में 332.14 फीसदी ब्रिकी, 267.52 प्रतिशत प्रोडक्शन और 69.75 फीसदी स्वरोजगार पैदा हुए हैं। खादी से जुड़े रोजगार ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में पैदा हुए हैं। वहां कताई, बुनाई के कारखानों में पुरुषों के मुकाबले महिलाएं अधिक भागीदार हुई हैं।

बहरहाल, खादी के कपड़ों में अनायास देशवासियों का रुचि लेना, निसंदेह बड़े बदलाव की ओर संकेत देता है। कहावत है कि ‘ओल्ड इज गोल्ड’। खादी की अचानक बढ़ी मूसलाधार ब्रिकी ने ये कहावत भी चरितार्थ कर दी है। शायद ब्रांडेड कपड़ों और आधुनिक चकाचौंध से लोग अब ऊबने लगे हैं। तभी, लोग फिर से अपनी जमीन की ओर मुड़ने को मजबूर हुए हैं। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2003-2013 में खादी का कारोबार 26109.08 करोड़ रुपये था, जो 2014-2023 में छलांग लगाकर 95956.68 करोड़ रुपये तक जा पहुंचा। इनमें खादी के निर्मित कपड़े अन्य उत्पादनों से कहीं अधिक हैं। जनमानस का खादी की ओर मुड़ना निश्चित रूप से ‘स्वदेशी अभियान’ को पंख लगाने जैसा है। मौजूदा सरकार ने करीब दशक भर से स्वेदशी अभियान की अलख जगाई हुई है। इस लिहाज से खादी के कारोबार में भयंकर बिकवाली का होना उनके अभियान की सफलता पर मुहर लगाने जैसा है।

निश्चित रूप से खादी में अब प्रत्येक वर्ग की रुचि बढ़ी है। खादी का कपड़ा खास है जो किसी धर्म-समुदाय से वास्ता नहीं रखता। प्रत्येक सच्चे देशभक्त का अपना देशी कपड़ा है। चाहे अल्पसंख्य हों, सिख हों, साधु-संत हों, या फिर मॉर्डर्न जमाने के शिक्षित युवा-युवती। सभी ने खादी को अपनाना आरंभ कर दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि दशकों पहले महात्मा गांधी ने स्वदेशी खादी उत्पादों को अपनाने की जो देशवासियों के भीतर अलख जगाई थी उसका असर अब कहीं दिखा है। खादी आंदोलन, एक सामाजिक-सांस्कृतिक आख्यान, जो गांधी द्वारा मई-1915 में सत्याग्रह आश्रम से शुरू किया गया था, जो गुजरात के अहमदाबाद जिले में साबरमती आश्रम के नाम से लोकप्रिय है। गांधी युग में खादी के कपड़े लोगों के सिर चढ़कर बोलते थे। धारणा पहले कुछ ऐसी थी कि सच्चा हिंदुस्तानी मतलब खादी को अपनाने वाला। गांधी ने ताउम्र खादी को अपनाया। दूसरों को भी हमेशा खादी पहनने को ही कहा।

खादी का बोलबाला कभी कम नहीं होगा। आज खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड के अंतर्गत नौ उत्पादन केंद्र पूरे भारत में मौजूद हैं, जहां चरखे से धागे का निर्माण होता है। बुनकर खादी के वस्त्र बुनते हैं जिनके लिए खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग द्वारा निर्धारित दर पर श्रमिकों का भुगतान किया जाता है। बनारस में आज भी बड़े स्तर पर निजी रूप से बुनकरों द्वारा खादी के वस्त्र तैयार किए जाते हैं। वहां करीब, पांच लाख लोग इस कार्य में जुड़े हैं। खादी को अपनाने के लिए जब से सरकारी स्तर पर स्वदेशी अभियान छेड़ा गया, तभी से इन बुनकरों की बल्ले-बल्ले हो गई। अब इन्हें रोजाना बड़ी-बड़ी कंपनियों से ऑर्डर मिलते हैं। इस आधार पर ही खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड ने जो अपनी रिपॉर्ट जारी की है उसमें लाखों लोगों को स्वरोजगार मिलने की बात कही है।

महात्मा गांधी ने 1920 के आखिरी महीने में स्वदेशी आंदोलन आरंभ किया था, जिसमें उन्होंने खादी को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया था। महात्मा गांधी ने तब समूचे भारत में ग्रामीण स्वरोजगार और आत्मनिर्भरता के लिए खादी की कताई को बढ़ावा दिया था। इस प्रकार खादी स्वदेशी आंदोलन का एक अभिन्न अंग और प्रतीक बन गया था। वैसे, देखा जाए तो खादी महज एक वस्त्र मात्र नहीं है, बल्कि ये हमारे देश के अस्तित्व, परंपरा, पहचान और संस्कार भी है। हम जब खादी धारण करते हैं, तो ऐसा एहसास होता है जैसे मानो अपनी संस्कृति का हम प्रदर्शन कर रहे होते हैं। खादी हमारी पारंपरिक धरोहर समान है जिसे मौजूदा वक्त में देशवासियों ने आत्मनिर्भर नवभारत के मंत्र को पढ़कर ही इसके कारोबार में भारी उछाल डलवाया है। खादी की गूंज आज संसद से लेकर ग्लोबल बाजार तक सुनाई देती है। यही कारण है कि खादी के कारोबार ने देश में पहली मर्तबा डेढ़ लाख करोड़ के कारोबार को पार किया है जिसने सभी आधुनिक फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स यानी एफएमसीजी कंपनियों को पीछे छोड़ा है।

खादी के नए कीर्तिमान स्थापित करने का मतलब है, केंद्र सरकार का स्वदेशी अभियान और आत्मनिर्भरता की अपील का असर दिखाना। इसे नया रिकॉर्ड ही कहेंगे, जब बीती 26 जनवरी को दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित खादी स्टोर में एक दिन की बिक्री 1.29 करोड़ रुपये तक पहुंच गई। खादी पहनना ब्रांडेड कपड़ों के मुकाबले हमेशा से सुलभ और सरल माना गया है। इसका सस्ते से सस्ता और महंगे से महंगा कपड़ा हाथों से ही बुना जाता है। खादी के वस्त्रों का निर्माण मशीनों से नहीं होता। ग्रामीण स्तर पर ज्यादा निर्माण होने से वहां के लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। इस समय देश के विभिन्न जगहों पर एनएमसी चरखे लगे हैं। नए चरखों के लिए लोग आवेदन भी कर रहे हैं। खादी से संबंधित एक जरूरी सवाल यहां बुलंद करना जरूरी है। दरअसल, खादी के कपड़े अब पहले के मुकाबले उतने सस्ते नहीं रहे। दाम भरपूर बढ़े हैं। बावजूद इसके खरीदारों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही है। सरकार अगर खादी के दामों में कुछ कटौती कर दे तो कारोबार में और उछाल आएगा, क्योंकि खादी के दाम जिस हिसाब से आसमान छू रहे हैं, वो कइयों की पहुंच से दूर है। इस ओर ध्यान देने की केंद्र सरकार को जरूरत है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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Rama Niwash Pandey

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