किताबों और कॉपियों के दामों में 15 से 20 फीसदी की बढ़ोतरी: स्कूलों की कमीशन आधारित मनमानी
नई दिल्ली, 8 अप्रैल 2025: नए शैक्षणिक सत्र की शुरुआत के साथ ही अभिभावकों पर एक बार फिर आर्थिक बोझ बढ़ गया है। स्कूलों में पढ़ाई के लिए जरूरी किताबों और कॉपियों के दामों में इस बार 15 से 20 फीसदी तक की बढ़ोतरी देखी गई है। इस बढ़ोतरी के पीछे कागज और प्रिंटिंग की लागत में इजाफा तो एक कारण बताया जा रहा है, लेकिन अभिभावकों और विशेषज्ञों का आरोप है कि स्कूल प्रबंधन, प्रकाशक और किताब विक्रेताओं के बीच कमीशन का खेल इसकी असली वजह है। खास तौर पर निजी स्कूलों द्वारा ऐसी किताबों को मान्यता दी जा रही है, जहां से उन्हें मोटा कमीशन मिलता है, जिसका सीधा असर अभिभावकों की जेब पर पड़ रहा है।
महंगाई की मार: किताबें और कॉपियां हुईं महंगी
पिछले कुछ सालों में कागज की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी हुई है। किताब विक्रेताओं का कहना है कि कच्चे माल की लागत और प्रिंटिंग खर्च बढ़ने के कारण कॉपियों और किताबों के दामों में इजाफा करना मजबूरी बन गया है। उदाहरण के लिए, जहां पहले 120 पेज की एक कॉपी 20 रुपये में मिलती थी, वहीं अब उसकी कीमत 25 से 30 रुपये हो गई है। इसी तरह, एनसीईआरटी की किताबों को छोड़कर निजी प्रकाशकों की किताबों के दाम भी 15 से 20 फीसदी तक बढ़ गए हैं। एक सामान्य किताब, जिसकी कीमत पिछले साल 200 रुपये थी, अब 240 से 250 रुपये में बिक रही है।
हालांकि, यह बढ़ोतरी सिर्फ लागत का परिणाम नहीं है। अभिभावकों का कहना है कि स्कूल प्रबंधन द्वारा खास प्रकाशकों की किताबों को थोपने और उनकी मनमानी कीमतों को स्वीकार करने की मजबूरी ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है। एक अभिभावक, राजेश शर्मा, जिनका बच्चा दिल्ली के एक निजी स्कूल में पढ़ता है, ने बताया, “हमें हर साल नई किताबें खरीदने के लिए कहा जाता है, भले ही पुरानी किताबें काम करने लायक हों। स्कूल हमें एक खास दुकान से ही सामान लेने को कहता है, जहां दाम बाजार से 20-25 फीसदी ज्यादा होते हैं।”

कमीशन का खेल: स्कूल, प्रकाशक और विक्रेता की सांठगांठ
किताबों और कॉपियों की बिक्री में कमीशन का खेल कोई नई बात नहीं है। कई रिपोर्ट्स और अभिभावकों के अनुभव बताते हैं कि स्कूल प्रबंधन, बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स और स्थानीय शिक्षा अधिकारियों के बीच एक सुनियोजित सांठगांठ चल रही है। इस सिस्टम में किताब की वास्तविक लागत से कई गुना ज्यादा कीमत (एमआरपी) छापी जाती है, जिसमें 70-80 फीसदी तक का मार्जिन शामिल होता है। यह कमीशन स्कूलों और विक्रेताओं के बीच बंट जाता है।
एक किताब विक्रेता, जो नाम न छापने की शर्त पर बात करने को तैयार हुआ, ने खुलासा किया, “स्कूल हमें बताते हैं कि कौन सी किताबें लानी हैं। ये किताबें ज्यादातर निजी प्रकाशकों की होती हैं, जिनकी कीमत एनसीईआरटी की किताबों से कहीं ज्यादा होती है। हर किताब पर हमें स्कूल को 20-30 फीसदी कमीशन देना पड़ता है। अगर हम ऐसा न करें, तो अगले साल हमारा कॉन्ट्रैक्ट रद्द कर दिया जाता है।”
इसके अलावा, कई स्कूल अभिभावकों को खास दुकानों से ही किताबें और स्टेशनरी के लिए बाध्य करते हैं। इन दुकानों पर न तो छूट दी जाती है और न ही बिल में पारदर्शिता रखी जाती है। नतीजतन, अभिभावकों को बाजार से ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है।
एनसीईआरटी पर जोर, लेकिन हकीकत अलग
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत सभी स्कूलों में एनसीईआरटी की किताबों को प्राथमिकता देने की बात कही गई है। ये किताबें न केवल सस्ती होती हैं, बल्कि गुणवत्तापूर्ण पाठ्यक्रम भी प्रदान करती हैं। मगर निजी स्कूल इसका पालन करने से बचते हैं। कारण साफ है—एनसीईआरटी की किताबों में प्रकाशकों और स्कूलों को कमीशन का मुनाफा नहीं मिलता। एक सामाजिक कार्यकर्ता, अनिता वर्मा, ने कहा, “एनसीईआरटी की किताबें 50-60 रुपये में उपलब्ध हैं, जबकि निजी प्रकाशकों की किताबें 200-300 रुपये की हैं। फिर भी स्कूल इन्हें क्यों थोपते हैं? जवाब है—कमीशन।”
अभिभावकों की परेशानी और सरकार की चुप्पी
नए सत्र की शुरुआत से पहले किताबों और कॉपियों की खरीदारी के लिए अभिभावकों की लंबी कतारें स्कूलों के बाहर देखी जा सकती हैं। कई अभिभावकों का कहना है कि उनकी पूरी कमाई का बड़ा हिस्सा बच्चों की पढ़ाई पर खर्च हो रहा है। एक मध्यमवर्गीय परिवार की मां, प्रीति सिंह, ने कहा, “स्कूल की फीस, किताबें, यूनिफॉर्म—सब कुछ मिलाकर हर साल 50,000 रुपये से ज्यादा खर्च हो जाते हैं। अब दाम और बढ़ गए हैं, तो समझ नहीं आता कि बच्चों को कैसे पढ़ाएं।”
शिक्षा विभाग और जिला प्रशासन इस मामले में कार्रवाई करने में नाकाम रहे हैं। कुछ जगहों पर स्कूलों के खिलाफ शिकायतें दर्ज की गई हैं, लेकिन ठोस कदम नहीं उठाए गए। विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार को सख्त नियम लागू करने चाहिए, जैसे कि किताबों की कीमतों पर नियंत्रण, एनसीईआरटी किताबों को अनिवार्य करना और कमीशन के इस खेल पर रोक लगाना।
