मायावती की लखनऊ रैली: राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन या संजीवनी की तलाश…!!!
लखनऊ, 9 अक्टूबर 2025: उत्तर प्रदेश की सियासी गलियों में आज एक नया भूकंप आ गया। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने कांशीराम स्मारक स्थल पर आयोजित महारैली से दलित-मुस्लिम-पिछड़ों के वोट बैंक को जगाने की कोशिश की। 2021 के बाद पहली ऐसी मेगा रैली, जो 2027 विधानसभा चुनावों से डेढ़ साल पहले ‘करो या मरो’ का ऐलान बन गई। पार्टी का दावा है—पांच लाख से ज्यादा समर्थक जुटे, लेकिन सवाल वही: क्या यह बसपा को नई सांस दे पाएगी, या सिर्फ सपा-कांग्रेस पर तीर चलाने का बहाना? मायावती का लंबा भाषण, आकाश आनंद का उभार, और विपक्ष की चुभती प्रतिक्रियाएं—यह सब क्या संकेत दे रहा है? आइए, इसकी परतें खोलें, जहां शक्ति का प्रदर्शन और रणनीति की जंग आपस में उलझी नजर आ रही है।
रैली का संदर्भ: प्रतीकात्मक जगह और रणनीतिक समय का जादू
कांशीराम स्मारक स्थल पर सुबह नौ बजे शुरू हुई यह रैली बसपा के इतिहास से गूंथी हुई है। पुरानी जेल रोड वाली यह जगह 2007 की ऐतिहासिक जीत के बाद पार्टी के कई सफल आयोजनों का गवाह रही, जहां ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ का मंत्र गूंजा था। 9 अक्टूबर की तारीख चुनना मास्टरस्ट्रोक था—कांशीराम की 19वीं पुण्यतिथि, जो दलित कार्यकर्ताओं के दिलों को छूती है, भावुकता जगाती है। मायावती ने सबसे पहले कांशीराम की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया, जो समर्थकों को पुरानी यादें ताजा कर गया। यह रैली महज स्मृति नहीं, बल्कि 2024 लोकसभा की शून्य सीटों के बाद रिवाइवल का संकेत थी। पार्टी ने इसे ‘बहुजन जागरण’ का नाम दिया, जहां नीले झंडे, ‘आई लव बसपा’ बैनर और #बहनजी_का_संदेश सोशल मीडिया पर धूम मचा रहा था। लखनऊ की सड़कें नीले रंग से सराबोर हो गईं, और दूर-दराज से आए कार्यकर्ता ‘लखनऊ चलो’ के नारे लगा रहे थे। लेकिन क्या यह जगह और समय बसपा को वाकई नई दिशा दे पाएंगे, या सिर्फ अतीत की चमक? यह सवाल रैली की सफलता का आईना बन गया। कुल मिलाकर, आयोजन ने पार्टी के मूल एजेंडे—आरक्षण और सामाजिक न्याय—को फिर से जीवंत करने की कोशिश की, जो यूपी की सियासत को हिला सकता है।
तैयारी, भीड़ और मंच के चेहरे: उत्साह की लहर या सतर्क अनुमान?
एक महीने से चली मोबिलाइजेशन ने रैली को भव्य बनाया। आकाश आनंद जैसे युवा नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी गई, जिन्होंने बूथ स्तर पर कैडर को जगाया। लखनऊ नीले पोस्टरों, झंडों से जगमगा उठा, जबकि एक्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर #बहनजी_का_संदेश ट्रेंड कर रहा था। पार्टी ने दावा किया—पांच लाख से ज्यादा लोग जुटे, यूपी के कोने-कोने से। स्वतंत्र अनुमान? दो-तीन लाख के आसपास, लेकिन भीड़ का जोश देखने लायक था—नारे, नाच-गान, और कांशीराम के चित्रों पर फूल। मंच पर मायावती के अलावा आकाश आनंद, आनंद कुमार, सतीश चंद्र मिश्रा और नौशाद अली जैसे चेहरे थे, जो ‘सर्वजन’ फॉर्मूले को री-लॉन्च करने का संकेत दे रहे थे। यह बसपा का नया अंदाज था—मायावती अकेली नहीं, बल्कि टीम के साथ। आकाश को ‘युवा चेहरा’ बताते हुए बूथ एकीकरण की कमान सौंपी गई, जिससे कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा आई। लेकिन कई पोस्ट्स में सवाल उठे—क्या यह भीड़ टिकाऊ है? 2022 की एक सीट वाली हार के बाद यह उत्साह बसपा को सपा के PDA वोट से छीन पाएगा? सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो दिखाते हैं कि रैली ने युवाओं को खींचा, लेकिन कुछ आलोचक इसे ‘अस्थायी जोश’ बता रहे हैं। फिर भी, तैयारी ने साबित किया—बसपा का कैडर जिंदा है, बस दिशा चाहिए।
भाषण की रणनीति, प्रभाव और विपक्ष की चोट: संजीवनी या आधा-अधूरा दांव?
मायावती का तीन घंटे का भाषण रैली का हाइलाइट था—’नए अंदाज’ में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए 2027 के लिए ‘अकेले लड़ने’ का ऐलान। गठबंधनों को ‘सरकार तोड़ने वाला’ बताकर खारिज किया, थीम रही ‘आरक्षण, सामाजिक न्याय’। प्रमोशन में आरक्षण को मजबूत बनाने, दलित-मुस्लिम-पिछड़ों के विकास पर जोर— “आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिला, संविधान बचाओ।” सपा-कांग्रेस को ‘जातिवादी’ ठहराया, सपा के सत्ता काल में स्मारकों की लापरवाही पर चोट की। बीजेपी पर अप्रत्यक्ष निशाना—कानून-व्यवस्था, बेरोजगारी—लेकिन योगी सरकार की स्मारक मरम्मत की तारीफ ने विवाद खड़ा कर दिया। अखिलेश यादव ने इसे ‘जुल्म करने वालों की आभारी’ कह तंज कसा, PDA एकता टूटने का डर जताया। आकाश आनंद ने कहा, “यूपी में पांचवीं बार बसपा सरकार।” सकारात्मक? दलित कोर में जोश, 9.4% वोट शेयर से उभार। नकारात्मक? 13 सालों में ग्राफ गिरा—नेताओं का पलायन, शून्य लोकसभा सीटें। सपा पर फोकस ने BJP के खिलाफ PDA को कमजोर किया। विश्लेषक कहते हैं—रैली संजीवनी है, लेकिन रणनीति आधी। अगर हर दो महीने ऐसी हों, तो ‘हाथी’ फिर दौड़ेगा। वरना, 7/10—शक्ति दिखी, दिशा बाकी। असली टेस्ट 2027 में।
