आपातकाल : मैं और मेरा परिवार ताजिंदगी यह दंश भूल नहीं सकते : जवाहर लाल बरनाल

 आपातकाल : मैं और मेरा परिवार ताजिंदगी यह दंश भूल नहीं सकते : जवाहर लाल बरनाल

 फर्जी आरोप में मुझे एक तुगलकी फरमान (आपातकाल) में जेल भेज दिया गया था। मैं जेल गया तो परिवार के लोग डर गए। साथी-संगी भी कन्नी काटने लगे। वे सब डर-डर कर घर आते। उन लोगों को यह भय सताने लगा कि कहीं इसका खामियाजा उन्हें भी न भुगतना पड़े। मैं और मेरा परिवार ताजिंदगी यह दंश भूल नहीं सकता। यह कहना है कि जनपद के जवाहरलाल बरनवाल का। उन्होंने आयरन लेडी कही जाने वाली महिला द्वारा लगाए गए आपातकाल का दंश को करीब से देखा ही नहीं, बल्कि उसे खुद पर हुए जुल्मों के साक्षी भी हैं।

जिले के लम्भुआ कस्बा निवासी जवाहरलाल बरनवाल ने हिन्दुस्थान समाचार प्रतिनिधि से आपातकाल की यादों को ताजा करते हुए उनकी आंखें भर आयीं। आपातकाल का जिक्र होते ही इन्दिरा गांधी का अक्स उनकी आंखों से सामने उभर आया। हो भी क्यों न। दोनों एक-दूसरे के पूरक जो ठहरे। एक बार फिर इमरजेंसी की याद ताजा हो गई।

श्री बरनवाल ने बताया कि उस वक्त मेरा बेटा महज दो साल का था। मैं जिले के लम्भुआ कस्बे में किराए के एक छोटे से कमरे में दुकान करता था। टॉफी, बिस्कुट, स्टेशनरी, जनरल स्टोर जैसे सामानों की बहुत अच्छी दुकान थी। इलाके में तैनात अफसर, बैंकर्स, नौकरीपेशा लोगों के अलावा मानिंद किसान अच्छे ग्राहक थे। दुकान से मेरे परिवार का खर्च उस वक्त के हिसाब से लगभग मध्यम श्रेणी की तरह चल जाता था। बची-खुची आय से कुछेक लोगों की मदद भी हो जाती रही। जरूरतमंद बच्चों को कलम, स्याही जैसी छोटी-मोटी मदद के अलावा समाजसेवा से जुड़े कुछ काम भी इस दुकान से हो जाता था। जुलाई 1975 में जब विरोधियों पर सरकारी कार्रवाई की जद में ग्रामीण इलाके के लोग भी आने लगे तो मेरी दुकान पर भी अफसरों ने छापा मारा।

श्री बरनवाल कहते हैं कि सत्तारूढ़ दल से जुड़े जिले के एक नेता (अब दिवंगत) को रास नहीं आई थी। उस वक्त थानेदार का बड़ा रुतबा होता था। पर, मेरी दुकान की जांच करने तत्कालीन कादीपुर एसडीएम फारूकी, दबंग थानेदार राम जतन यादव मय फोर्स, एसओसी शुक्ल पहुंचे। हर सामान पर बिक्री मूल्य दर्ज किया गया था (उस वक्त यह जरूरी किया गया था, जिसका पालन दुकानदार को करना होता था)। मौजूद एसडीएम और थानेदार ने दुकान की व्यवस्था की सराहना भी की। लेकिन, अफसर शुक्ल ने कहा कि जिसे वह चेक करें, वह दुकानदार जेल न जाय, इसमें खुद शुक्ला की ही बेज्जती है। लिहाजा, फर्जी आरोप में मुझे इस आपातकाल में जेल भेज दिया गया था। इस दौरान कार्यवाही को सामान्य दिखाने-बताने के लिए कुछ और व्यापारियों के खिलाफ कार्रवाई भी हुई थी। मैं जेल गया तो परिवार के लोग डर गए। साथी-संगी भी कन्नी काटने लगे। वे सब डर-डर कर घर आते। उन लोगों को यह भय सताने लगा कि कहीं इसका खामियाजा उन्हें भी न भुगतना पड़े।

जवाहरलाल बरनवाल ने बताया कि जेल में जाने के बाद वहां पर मिलने के लिए परिवार के लोग हफ्ते में एक दिन आते थे। आठ से 10 लोगों का एक समूह था। उस समय किसी के घर से गुड़, चबैना, आम आता था। हम लोग मिल बांटकर खाते थे। जेल के अधिकारियों का व्यवहार भी अच्छा था। वो लोग भी जानते थे कि ये लोग अनावश्यक परेशान किये जा रहे हैं।

बिक्री के लिहाज से दुकान में टॉफी-बिस्कुट का अच्छा स्टॉक था। दुकान बंद हुई तो ज्यादातर सामान एक्सपायर होने लगे। दुकान में रखा दैनिक उपयोग का सामान घर के काम आने लगा। आय बन्द हुई, पर खर्च जारी ही नहीं रहा बल्कि बढ़ गया। जमानत की कोशिश ने रही-सही कसर पूरी कर दी। काफी जद्दोजहद के बाद मैं जमानत पर छूटा तो व्यापार चौपट हो चुका था या यूं कहें कि परिवार का बुरा दौर शुरू हो गया। ग्राहक दूसरी दुकान पर शिफ्ट हो चुके थे। एक्सपायर व खराब सामान दुकान से हटा तो खासा नुकसान हो चुका था। व्यापार में कदम जमाने की कोशिश शुरू हुई तो पत्नी की बीमारी की वजह से फिर से दुकान बंद करनी पड़ी। मेरा परिवार ताजिंदगी आपातकाल का दंश कभी भूल नहीं सकता।

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