अरावली खनन मामला: सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फैसले पर लगाई रोक, पहाड़ियों की परिभाषा और पारिस्थितिकी पर केंद्र से मांगा स्पष्टीकरण
अरावली पर्वतमाला के संरक्षण और वहां जारी खनन गतिविधियों को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत ने आज एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रभावी मोड़ ले लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने अरावली क्षेत्र में खनन से जुड़े अपने पिछले आदेश पर फिलहाल रोक लगा दी है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि अरावली पहाड़ियों और पूरी पर्वत श्रृंखला की परिभाषा को नए सिरे से तय किए जाने की आवश्यकता है, ताकि संरक्षण और विकास के बीच एक वैज्ञानिक संतुलन बनाया जा सके। यह कानूनी लड़ाई केवल एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका सीधा प्रभाव राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात जैसे राज्यों की भौगोलिक और पर्यावरणीय स्थिति पर पड़ने वाला है। कोर्ट के इस रुख ने उन तमाम हितधारकों के बीच हलचल पैदा कर दी है जो अरावली के भविष्य से जुड़े हुए हैं।
स्वत: संज्ञान और 20 नवंबर के आदेश पर स्थगन
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की गंभीरता को देखते हुए इसका स्वत: संज्ञान लिया है। सोमवार को हुई सुनवाई के दौरान अदालत की पीठ ने साफ तौर पर कहा कि अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की परिभाषा को लेकर जो भ्रम की स्थिति बनी हुई है, उसे दूर करना अनिवार्य है। इसी को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने अपने 20 नवंबर के फैसले में दिए गए निर्देशों को वर्तमान में स्थगित रखने का निर्णय लिया है। शीर्ष अदालत का मानना है कि पिछले आदेश में कुछ ऐसे जटिल बिंदु और मुद्दे रह गए थे, जिन पर केंद्र सरकार की ओर से विस्तृत स्पष्टीकरण और विशेषज्ञ राय की आवश्यकता है। अदालत ने कहा कि जब तक पहाड़ियों की वैज्ञानिक और भौगोलिक सीमाएं स्पष्ट नहीं हो जातीं, तब तक पिछले निर्देशों को लागू करना जल्दबाजी होगी।
उच्चस्तरीय समिति का प्रस्ताव और 21 जनवरी की समयसीमा
अवकाश पीठ के समक्ष हुई इस सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने एक दूरगामी कदम उठाने का प्रस्ताव रखा है। अदालत ने केंद्र सरकार और संबंधित पक्षों को नोटिस जारी करते हुए एक उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समिति गठित करने की बात कही है। इस समिति में भूवैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञों को शामिल किया जाएगा, जो अरावली क्षेत्र का विस्तृत अध्ययन कर अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपेंगे। इस समिति का मुख्य कार्य अरावली की पारिस्थितिक क्षमता का आकलन करना और उन क्षेत्रों को चिह्नित करना होगा जहाँ खनन किसी भी परिस्थिति में स्वीकार्य नहीं है। अदालत ने इस मामले की अगली विस्तृत सुनवाई के लिए 21 जनवरी की तारीख तय की है, जिससे यह स्पष्ट है कि नए साल की शुरुआत में अरावली के भविष्य पर एक निर्णायक फैसला आ सकता है।
पर्यावरण मंत्रालय के 24 दिसंबर के दिशा-निर्देश: संरक्षण की नई दिशा
सुप्रीम कोर्ट की इस सक्रियता के बीच केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने भी 24 दिसंबर को नए और कड़े निर्देश जारी किए थे। इन निर्देशों के माध्यम से केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया है कि संपूर्ण अरावली क्षेत्र में नई खनन मंजूरियों पर रोक जारी रहेगी। मंत्रालय का प्राथमिक उद्देश्य अरावली रेंज की भूवैज्ञानिक अखंडता को बचाए रखना है। ये निर्देश गुजरात के पालनपुर से शुरू होकर हरियाणा और राजस्थान के माध्यम से दिल्ली के रायसीना हिल्स तक फैली इस विशाल श्रृंखला को एक ‘सतत भूवैज्ञानिक इकाई’ के रूप में संरक्षित करने पर जोर देते हैं। सरकार का लक्ष्य अनियमित और अवैध खनन की उन सभी गतिविधियों को रोकना है जो इस प्राचीन पर्वतमाला के अस्तित्व के लिए खतरा बनी हुई हैं।
ICFRE की भूमिका: विज्ञान आधारित प्रबंधन योजना की तैयारी
अरावली के संरक्षण को केवल प्रशासनिक आदेशों तक सीमित न रखते हुए, सरकार ने अब इसे वैज्ञानिक आधार देने का निर्णय लिया है। पर्यावरण मंत्रालय ने ‘भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद’ (ICFRE) को एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। ICFRE से कहा गया है कि वह पूरे अरावली क्षेत्र में ऐसे अतिरिक्त संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करे जहाँ भविष्य में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। परिषद एक समग्र ‘विज्ञान आधारित प्रबंधन योजना’ तैयार करेगी, जिसे बाद में सार्वजनिक मंच पर रखा जाएगा। इसका उद्देश्य सभी साझेदारों, स्थानीय समुदायों और विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा करना है। इस योजना के तहत अरावली की पारिस्थितिक क्षमता का आकलन किया जाएगा और जो क्षेत्र पहले से ही क्षतिग्रस्त हो चुके हैं, उनकी बहाली और पुनर्वास के लिए ठोस उपाय सुझाए जाएंगे।
दायरा विस्तार: जैव-विविधता और स्थानीय पारिस्थितिकी का संरक्षण
केंद्र सरकार की इस नई पहल से अरावली क्षेत्र में संरक्षित और प्रतिबंधित क्षेत्रों का दायरा पहले के मुकाबले काफी व्यापक हो जाएगा। मंत्रालय के अनुसार, अब केवल उन क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा जहाँ वर्तमान में खनन हो रहा है, बल्कि उन बफर जोन्स और जैव-विविधता वाले क्षेत्रों को भी सुरक्षा दी जाएगी जो पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं। अरावली न केवल थार मरुस्थल के विस्तार को रोकने वाली एक प्राकृतिक दीवार है, बल्कि यह वन्यजीवों के लिए एक महत्वपूर्ण गलियारा और भूजल पुनर्भरण का मुख्य स्रोत भी है। नए नियमों में स्थानीय भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए ऐसी बंदिशें लगाई जाएंगी जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए इस प्राकृतिक संपदा को सुरक्षित रख सकें।
मौजूदा खदानों पर कसता शिकंजा और सख्त नियमन
सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के कड़े रुख का असर उन खदानों पर भी पड़ेगा जो वर्तमान में वैध लाइसेंस के साथ संचालित हो रही हैं। मंत्रालय ने राज्य सरकारों को सख्त निर्देश दिए हैं कि जो खदानें पहले से चल रही हैं, उनके मामले में किसी भी स्तर पर पर्यावरणीय मानकों की अनदेखी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। राज्यों को यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी मौजूदा गतिविधियां सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के पूर्णतः अनुरूप हों। इसके लिए अतिरिक्त बंदिशें और नियमित ऑडिट की व्यवस्था की जा रही है। यदि कोई खदान पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंचाती पाई जाती है, तो उसके संचालन पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने का प्रावधान भी किया गया है।
अरावली का भविष्य और न्यायपालिका की भूमिका
अरावली खनन मामले में सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला इस बात का संकेत है कि न्यायपालिका अब ‘तदर्थ’ समाधानों के बजाय एक स्थायी और वैज्ञानिक समाधान की ओर बढ़ रही है। पहाड़ियों की परिभाषा को नए सिरे से तय करने का अर्थ है कि अब किसी भी निर्माण या खनन गतिविधि को भूवैज्ञानिक तथ्यों की कसौटी पर परखा जाएगा। राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों के लिए, जहाँ खनन राजस्व का एक बड़ा स्रोत है, यह आदेश बड़ी चुनौती पेश कर सकता है, लेकिन पर्यावरणविदों ने इसका स्वागत किया है। 21 जनवरी की सुनवाई न केवल कानूनी रूप से बल्कि पर्यावरणीय इतिहास की दृष्टि से भी मील का पत्थर साबित होगी।