इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी: डीजीपी से पूछा – किस कानून में लिखा है कि पुलिस आरोपी से उसकी जाति पूछेगी?
6 मार्च 2025 इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अहम टिप्पणी की है, जो पुलिस की कार्यप्रणाली और नागरिकों के अधिकारों से संबंधित है। अदालत ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) से सवाल किया कि किस कानून में यह प्रावधान है कि पुलिस आरोपी से उसकी जाति पूछेगी। यह मामला एक विशेष मामले में पुलिस की कार्रवाई को लेकर उठे सवालों के संदर्भ में था, जिसमें पुलिस ने आरोपी से उसकी जाति पूछी थी। अदालत ने इस पर गंभीर आपत्ति जताई और इसे गंभीर तरीके से ध्यान में लिया। कोर्ट ने पुलिस को निर्देश दिया कि वह संविधान और भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत कार्य करे और आरोपी के अधिकारों का उल्लंघन न करे।
पुलिस द्वारा जाति पूछने का मामला
इस घटना का संबंध एक आपराधिक मामले से है, जिसमें आरोपी को गिरफ्तार किया गया था। मामले की जांच करते हुए पुलिस ने आरोपी से उसकी जाति के बारे में सवाल किया। यह सवाल और पुलिस की इस कार्रवाई ने कोर्ट का ध्यान आकर्षित किया, क्योंकि भारतीय संविधान और विभिन्न कानूनों के तहत किसी भी व्यक्ति को उसके जाति, धर्म, लिंग या अन्य सामाजिक पहचान के आधार पर भेदभाव करने का अधिकार नहीं है। इस मामले में पुलिस द्वारा आरोपी की जाति पूछे जाने से यह सवाल उठता है कि क्या यह कार्रवाई कानूनी थी, और अगर थी तो इसका कानूनी आधार क्या था।
कोर्ट की टिप्पणी
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस संदर्भ में गंभीर टिप्पणी करते हुए पूछा कि क्या इस तरह की कार्रवाई किसी कानून द्वारा अनुमोदित है। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के डीजीपी से सवाल किया कि “किस कानून में लिखा है कि पुलिस आरोपी से उसकी जाति पूछेगी?” इस सवाल का उद्देश्य यह था कि पुलिस को यह स्पष्ट किया जाए कि आरोपी के व्यक्तिगत विवरणों को लेकर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता, और यदि कोई कानून ऐसा प्रावधान करता है तो उसे स्पष्ट रूप से पेश किया जाए।
इस सवाल ने न केवल पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाया, बल्कि यह भी दर्शाया कि अदालत संवैधानिक अधिकारों के प्रति कितनी सचेत है। अदालत ने यह भी कहा कि किसी भी व्यक्ति के साथ उसके जाति, धर्म या लिंग के आधार पर भेदभाव करना संविधान की भावना के खिलाफ है, और यह अधिकारों का उल्लंघन है। इस प्रकार, पुलिस को निर्देशित किया गया कि वह केवल कानूनी और संवैधानिक दायरे में ही काम करें।
भारतीय संविधान और जातिवाद
भारतीय संविधान में जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ सख्त प्रावधान किए गए हैं। संविधान का अनुच्छेद 15 और 17 स्पष्ट रूप से जातिवाद और भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में कार्य करता है। अनुच्छेद 15 कहता है कि राज्य नागरिकों को उनकी जाति, धर्म, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। इसके अलावा, अनुच्छेद 17 के तहत ‘अछूत’ या ‘अस्पृश्यता’ की प्रथा को समाप्त कर दिया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ उसकी जाति के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता।
पुलिस की भूमिका और संवैधानिक जिम्मेदारी
पुलिस का मुख्य कार्य कानून व्यवस्था बनाए रखना और अपराधियों को सजा दिलवाना है। इसके लिए पुलिस को सभी नागरिकों के साथ निष्पक्ष और बिना किसी भेदभाव के व्यवहार करना चाहिए। जब पुलिस किसी अपराधी को गिरफ्तार करती है, तो उसका उद्देश्य केवल अपराध की जांच करना और न्याय प्रक्रिया को सही तरीके से लागू करना होता है। पुलिस का काम यह सुनिश्चित करना होता है कि किसी भी आरोपी को उसके संविधानिक अधिकारों से वंचित न किया जाए, और न ही उसे किसी प्रकार का भेदभाव सहना पड़े।
पुलिस को यह समझना चाहिए कि आरोपी चाहे किसी भी जाति, धर्म, या वर्ग का हो, वह कानून के तहत समान अधिकार रखता है। उसकी जाति पूछने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इस जानकारी से पुलिस की जांच प्रक्रिया में कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि आरोपी के खिलाफ कोई गंभीर अपराध है, तो पुलिस को उसके अपराध के आधार पर ही कार्रवाई करनी चाहिए, न कि उसकी जाति के आधार पर।
न्यायिक सक्रियता और संवैधानिक न्याय
इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी भारतीय न्यायपालिका की सक्रियता और संवैधानिक न्याय के प्रति समर्पण को दर्शाती है। कोर्ट ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि न्यायालय किसी भी प्रकार के भेदभाव को सहन नहीं करेगा और वह हमेशा यह सुनिश्चित करेगा कि कानून का पालन सभी नागरिकों के लिए समान रूप से हो।
हाईकोर्ट ने पुलिस को यह भी याद दिलाया कि संविधान में यह अधिकार सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है और किसी भी नागरिक के साथ जाति, धर्म, लिंग या अन्य सामाजिक पहचान के आधार पर भेदभाव करना अवैध है। यह टिप्पणी पुलिस की कार्यप्रणाली के सुधार की दिशा में एक अहम कदम है, जो यह सुनिश्चित करेगा कि पुलिस अपने कार्य में पूरी तरह से संवैधानिक रूप से काम करे।
भेदभाव से मुक्ति की दिशा
यह कदम भारतीय समाज में जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ एक सकारात्मक संदेश देता है। कई दशकों से भारतीय समाज में जातिवाद एक गहरी समस्या रही है, जो कई स्थानों पर लोगों को उनके अधिकारों से वंचित कर देती है। हालांकि, भारतीय संविधान ने इन सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के लिए कई कदम उठाए हैं, फिर भी कुछ स्थानों पर जातिवाद की मानसिकता अभी भी जीवित है। न्यायपालिका के इस तरह के सक्रिय कदम से यह संदेश मिलता है कि भारत एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर बढ़ रहा है, जहां हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त हो।
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा उठाए गए इस सवाल ने यह साबित कर दिया कि भारतीय न्यायपालिका अपनी भूमिका के प्रति कितनी जागरूक और संवेदनशील है। पुलिस और अन्य कानून लागू करने वाली एजेंसियों को यह समझना होगा कि संविधान और मानवाधिकारों का उल्लंघन किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं है। यह भी स्पष्ट हो गया कि भारतीय समाज में जातिवाद की समस्या को समाप्त करने के लिए कानूनी और न्यायिक दोनों स्तरों पर सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है। जब तक हम समाज में समानता और न्याय की वास्तविकता नहीं स्थापित करेंगे, तब तक जातिवाद और भेदभाव की समस्याएं बनी रहेंगी। अदालत की यह सख्त टिप्पणी हमें इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम की ओर अग्रसर होने का अवसर देती है।
