आपातकाल को यादकर आज भी सिहर उठते हैं रायबरेली के लोग
देश के लोकतांत्रिक इतिहास में ‘आपातकाल’ एक काले धब्बे की तरह है, जिसकी सबसे मुख्य वजह रायबरेली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की चुनाव को लेकर कोर्ट का फ़ैसला माना जाता है। रायबरेली हालांकि कांग्रेस का गढ़ रहा है, लेकिन आपातकाल में जिस तरह लोगों ने प्रतिरोध किया और उन्हें यातनाएं सहनी पड़ी, उसे आज भी याद कर लोग सिहर उठते हैं।
जिले के करीब 100 से अधिक लोगों को जेल जाना पड़ा और वहां छह माह से लेकर दो साल तक सरकारी तंत्र का दंश झेलना पड़ा। हालांकि इस घटना को करीब 49 साल हो गए हैं, इन लोकतंत्र प्रहरियों में कइयों का निधन हो चुका है, लेकिन कुछ आज भी जीवित हैं जिनके साथ और आंखों से सामने जो हुआ वह किसी भी लोकतांत्रिक देश में सम्भव नहीं।
प्रदेश के पूर्व विधि एवं न्याय मंत्री रहे गिरीश नारायण पांडेय आपात काल में सबसे पहले जेल गए थे। उन्होंने बताया कि आपातकाल लागू होने के बाद वह लालगंज अपने घर पर थे। 2/3 जुलाई डेढ़ बजे रात में थानेदार रामदेव पांडे ने दरवाजा खटखटाया। मैंने ही दरवाजा खोला तो एसओ ने कहा सर एसडीएम साहब थाने में एक जरूरी बैठक कर रहे हैं, आपको तुरंत बुलाया है। माजरा समझ गया कि पुलिस पकड़ने आई है। उन्होंने कहा कि एसडीएम से कह दो कि हम सुबह आएंगे। थानेदार ने बार-बार कहा तब मैं थाने की ओर चल पड़ा, जैसे ही बाहर निकला अगल बगल छिपे खड़े एक दर्जन बंदूकधारी सिपाहियों ने चारों तरफ से घेर लिया और वाहन में बैठने को कहा। मैंने वाहन में बैठने से मना कर दिया और पैदल थाने तक गया। वहां एसडीएम सलोन बैठे थे, देखते ही कहा आप अरेस्ट हो गए हैं। मैंने जुर्म पूछा तो कहाकि यह डीएम साहब ही बता सकते हैं। उनके कहने पर ही आपको पकड़ा गया है। जेल जाने के 11 माह बाद उच्च्च न्यायालय से जमानत मिली थी। मेरे ऊपर पुलिस को इंदिरा गांधी के प्रति भड़काने का आरोप लगाया गया था।
वरिष्ठ अधिवक्ता डीपी पाल ने आपातकाल को याद करते हुए बताया कि वह कचहरी में काम कर रहे थे और उनके साथ कई वकील भी बैठे थे कि अचानक पुलिस आई और पकड़कर ले गई उनके साथ मान भाई, राजनाथ श्रीवास्तव, राजकुमार अवस्थी शामिल थे। पुलिस ने सीधे जेल भेज दिया। छह माह बाद किसी तरह छूट कर आए। उन्होंने बताया कि सत्ता परिवर्तन में लोकतंत्र सेनानियों की अहम भूमिका रही।
रामस्वरूप सिंह से जब 1975 में आपातकाल के दौरान जेल जाने के विषय में पूछा गया तो चेहरे पर चमक आ गई,वह पुरानी यादों मे खो गए। गोपालपुर निवासी रामस्वरुप कहते हैं कि वह स्वयंसेवक होने के साथ-साथ जनसंघ के समर्पित कार्यकर्ता रहे। इमरजेंसी लगने के समय उन्हें पार्टी से आदेश मिला की पुलिस की पकड़ से दूर रहते हुए बाहर से आए पदाधिकारियों की मदद करते रहो। इसकी वजह से वह पुलिस की पहुंच से दूर रहे, लेकिन 3 दिसंबर 1975 को पुलिस ने उन्हें भी पकड़ लिया। उनके साथ के दो लोगों को जमानत मिल गई। लेकिन हाईकोर्ट के जज ने उनकी जमानत खारिज कर दी। इसकी वजह से वह सबसे ज्यादा दिन जेल में रहे और 12 अक्टूबर 1976 को रिहा हुए।



