• December 25, 2025

अरावली संकट: क्या दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला ‘परिभाषा’ की भेंट चढ़ जाएगी? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश भर में ‘सेव अरावली’ की गूँज

नई दिल्ली/जयपुर: भारत की पारिस्थितिक सुरक्षा की ‘ढाल’ मानी जाने वाली अरावली पर्वत शृंखला इस समय अपने अस्तित्व के सबसे बड़े कानूनी और पर्यावरणीय संकट से जूझ रही है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली की परिभाषा को लेकर दिए गए एक फैसले ने न केवल पर्यावरणविदों को झकझोर दिया है, बल्कि राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली की राजनीति में भी भूचाल ला दिया है। सोशल मीडिया पर ‘सेव अरावली कैंपेन’ (Save Aravalli Campaign) एक जन आंदोलन का रूप ले चुका है, जिसमें नागरिक, वैज्ञानिक और राजनेता एक सुर में इस प्राचीन धरोहर को बचाने की गुहार लगा रहे हैं।

अरावली पर्वत शृंखला: दो अरब साल पुरानी कुदरती दीवार

अरावली केवल पत्थरों और चट्टानों का समूह नहीं है, बल्कि यह पृथ्वी की सबसे प्राचीन पर्वत शृंखलाओं में से एक है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार, अरावली लगभग दो अरब साल पुरानी है, जो इसे हिमालय से भी कहीं अधिक प्राचीन बनाती है। गुजरात के पालनपुर से शुरू होकर राजस्थान और हरियाणा से गुजरती हुई यह शृंखला दिल्ली के रायसीना हिल्स तक लगभग 670 किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है।

                                                                                                   

इस शृंखला का महत्व भारत के भूगोल के लिए अपरिहार्य है। यह थार रेगिस्तान की विस्तारवादी रेत और गर्म हवाओं को भारत के गंगा के उपजाऊ मैदानी इलाकों (उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा) की ओर बढ़ने से रोकने के लिए एक ‘प्राकृतिक बैरियर’ या पारिस्थितिकी दीवार के रूप में काम करती है। यदि अरावली न होती, तो आज दिल्ली और उत्तर भारत का एक बड़ा हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो चुका होता। यह चंबल, लूनी, साबरमती और बनास जैसी नदियों का उद्गम स्थल या जलग्रहण क्षेत्र भी है।

चर्चा का मुख्य कारण: 100 मीटर की ऊंचाई का विवाद

अरावली अचानक चर्चा के केंद्र में तब आई जब सुप्रीम कोर्ट में इस क्षेत्र में हो रहे अवैध खनन को लेकर एक याचिका दायर की गई। अदालत ने पाया कि अलग-अलग राज्य और एजेंसियां अरावली की पहचान के लिए अलग-अलग पैमानों का इस्तेमाल कर रही हैं। किसी भी पर्वत को ‘अरावली’ की कानूनी सुरक्षा देने के लिए उसकी सटीक परिभाषा तय करना आवश्यक हो गया था।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने 2025 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। 20 नवंबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट के आधार पर फैसला सुनाया कि अब केवल उन्हीं पहाड़ियों को ‘अरावली पर्वत शृंखला’ का हिस्सा माना जाएगा जिनकी ऊंचाई तलहटी से 100 मीटर से अधिक है।

यही वह बिंदु है जिसने विवाद को जन्म दिया। कोर्ट के एमिकस क्यूरी के. परमेश्वर ने इस पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि यह परिभाषा अत्यंत संकीर्ण है। यदि केवल 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली माना जाएगा, तो अरावली का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा कानूनी सुरक्षा के दायरे से बाहर हो जाएगा और वहां बेधड़क खनन शुरू हो सकता है।

पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव: विशेषज्ञों की चेतावनी

पर्यावरण विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों का मानना है कि अरावली को केवल ‘ऊंचाई’ के पैमाने पर मापना एक बड़ी वैज्ञानिक भूल है। विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली एक संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) है। इसकी छोटी पहाड़ियां, जिन्हें ‘रिज’ या टीले कहा जाता है, भूजल रिचार्ज करने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। अरावली की चट्टानें बारिश के पानी को जमीन के भीतर भेजने के लिए ‘स्पंज’ की तरह काम करती हैं।

यदि 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियों को ‘नॉन-अरावली’ घोषित कर दिया गया, तो राजस्थान में अरावली का लगभग 90% हिस्सा खनन माफियाओं के लिए खुल जाएगा। इससे न केवल अरावली का विनाश होगा, बल्कि दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता (AQI) और अधिक खराब हो जाएगी क्योंकि ये पहाड़ियां धूल भरी आंधियों के लिए ‘फिल्टर’ का काम करती हैं। अरावली का विनाश होने से भूजल स्तर गिर जाएगा और वन्यजीवों का आवास हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगा।

सरकारी पक्ष और जीएसआई का तर्क

दूसरी ओर, केंद्र सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी ने कोर्ट में तर्क दिया कि 100 मीटर का मानक फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) के पुराने मानकों से बेहतर है, जो अरावली के बहुत बड़े हिस्से को परिभाषा से बाहर कर रहे थे।

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) के पूर्व महानिदेशक दिनेश गुप्ता ने इस मामले में एक अलग दृष्टिकोण रखा है। उनका कहना है कि 2008 में भी जीएसआई की एक कमेटी ने 100 मीटर के कंटूर लेवल को आधार मानने की सिफारिश की थी। उनके अनुसार, यह कहना गलत है कि अरावली में खनन से रेगिस्तान बढ़ जाएगा, क्योंकि रेगिस्तान के बढ़ने के अन्य भौगोलिक कारण भी होते हैं। गुप्ता का मानना है कि इस मामले में जनता को भ्रमित किया जा रहा है और 100 मीटर का मानक वैज्ञानिक रूप से तर्कसंगत है।

अरावली पर सियासत: गहलोत बनाम भाजपा

यह मुद्दा अब केवल पर्यावरण तक सीमित नहीं रहा, बल्कि एक बड़े राजनीतिक टकराव का कारण बन गया है। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत ने ‘सेव अरावली’ कैंपेन की कमान संभाल ली है। गहलोत ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि अरावली प्रकृति की बनाई हुई ‘ग्रीन वॉल’ है। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर छोटी पहाड़ियों को खनन के लिए खोल दिया गया, तो रेगिस्तान हमारे दरवाज़े तक आ जाएगा। गहलोत ने इसे जल संरक्षण का मुख्य आधार बताते हुए कहा कि अरावली का नुकसान भावी पीढ़ियों के लिए जानलेवा साबित होगा।

जवाब में, भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस पर दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप लगाया है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने पलटवार करते हुए कहा कि अशोक गहलोत सरकार के दौरान भी कई ऐसी रिपोर्टें पेश की गई थीं जो खनन के पक्ष में थीं और अब वे राजनीतिक लाभ के लिए विरोध कर रहे हैं।

हालांकि, भाजपा के भीतर से भी विरोध के स्वर उठने लगे हैं। राजस्थान भाजपा के कद्दावर नेता और पूर्व मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने अपनी ही पार्टी की सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं। राठौड़ ने मांग की है कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट में ‘रिव्यू पिटिशन’ (पुनर्विचार याचिका) दायर करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अरावली की परिभाषा केवल ऊंचाई तक सीमित नहीं होनी चाहिए, क्योंकि निचली पहाड़ियां भी पर्यावरण के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हैं।

हरित दीवार परियोजना (Green Wall Project) और भविष्य की चुनौतियां

भारत सरकार ने अरावली के संरक्षण के लिए जून 2025 में ‘अरावली हरित दीवार परियोजना’ की शुरुआत की थी। इसके तहत अरावली रेंज के चार राज्यों (गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली) के 29 जिलों में पहाड़ियों के चारों ओर पांच किलोमीटर का बफर जोन (जंगल) बनाने का लक्ष्य है। सरकार का दावा है कि 2030 तक इसके माध्यम से 2.6 करोड़ हेक्टेयर खराब भूमि को उपजाऊ बनाया जाएगा।

लेकिन विशेषज्ञों का सवाल है कि एक तरफ जंगल लगाने की बात हो रही है और दूसरी तरफ 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियों को परिभाषा से बाहर कर खनन की अनुमति दी जा रही है, तो यह विरोधाभास अरावली को कैसे बचाएगा?

समाज और अदालतों के सामने बड़ी जिम्मेदारी

अरावली का मामला आज एक निर्णायक मोड़ पर है। सुप्रीम कोर्ट ने बेहतर प्रबंधन योजना तैयार करने के निर्देश दिए हैं, जिसके तहत खनन और नो-माइनिंग जोन की पहचान की जाएगी। लेकिन असली चुनौती ‘अरावली’ की उस परिभाषा को लेकर है जो इसके अस्तित्व को बचाए रखे। पर्यावरणविदों का मानना है कि अरावली का विनाश स्थायी होगा—एक बार पहाड़ कट गए और जलधाराएं सूख गईं, तो उन्हें दोबारा जीवित करना असंभव होगा।

जनता के बीच ‘सेव अरावली’ की गूँज यह संदेश दे रही है कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की इस लड़ाई में अब प्रकृति की अनदेखी नहीं की जा सकती।

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