• October 18, 2025

आपातकाल की संवैधानिक त्रासदी पुर्नपाठ जरूरी

 आपातकाल की संवैधानिक त्रासदी पुर्नपाठ जरूरी

गांव-गली में शोर है-कौवा कान ले गया। किसी ने नहीं देखा। इसने उससे कहा। उसने अगले से कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव में भारी बहुमत पाकर संविधान बदल देंगे। मूलभूत प्रश्न है कि क्या कोई सरकार संविधान समाप्त कर सकती है? क्या कोई सरकार बिना संविधान के ही शासन की संस्थाओं, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का संचालन कर सकती है? क्या कोई सरकार संविधान के आधारिक लक्षणों-बेसिक फीचर्स का संशोधन या निरसन कर सकती है? सारे प्रश्नों का उत्तर है-नहीं। कौवा कान ले गया लेकिन कान अपनी जगह ही है। कौवा कांव-कांव कर रहा है। झूठ-मूठ।

बचपन में कथा सुनी थी। एक बारात के सारे लोग भाग रहे थे। एक ने दूसरे से पूछा-आप क्यों भाग रहे हैं? दूसरे ने कहा-आप भी भाग रहे हैं? अगले ने कहा-मुझे क्या पता? सब भाग रहे हैं। सो हम भी भाग रहे हैं। बहुत खोज करने पर पता चला कि एक व्यक्ति की मोटरसाइकिल की चाभी खो गई थी। वह तेज रफ्तार दौड़कर चाभी खोजने गया था। बाकी लोग देखा-देखी अकारण भाग रहे थे। संविधान खात्मे की बहस व्यर्थ है। संविधान साधारण अभिलेख नहीं है। यह राष्ट्र का राजधर्म है। आवश्यकतानुसार संविधान में संशोधन होते रहते हैं। लगभग 105 संशोधन हो चुके हैं। संविधान में ही संविधान संशोधन के प्रावधान हैं। संविधान बदलने और संशोधन करने में मूलभूत अंतर है। संविधान संशोधन विषयक प्रावधान (अनुच्छेद 368-मसौदा संविधान अनुच्छेद 304) पर संविधान सभा में बहस चली थी। एच. वी. कामथ ने कहा था, ”संशोधन आखिरकार क्या है? संशोधन का अर्थ हो सकता है संविधान में कुछ परिवर्तन। उसमें कुछ जोड़ना या उसका निरसन।” लेकिन चुनाव में संविधान संशोधन को लेकर कोई बहस नहीं है। संविधान खत्म करने की बयानबाजी हास्यास्पद है।

संविधान सभा में पी. एस. देशमुख ने कहा था, ”भविष्य में कुछ समय तक संविधान में तमाम परिवर्तन करने आवश्यक होंगे। इसलिए संविधान संशोधन आसान बनाना जरूरी है।” सभा में अनेक सदस्यों ने विचार व्यक्त किए। डॉ. आम्बेडकर ने कहा, ”आयरिश संविधान में, दोनों सदन सामान्य बहुमत से संविधान के किसी भाग को संशोधित कर सकते हैं। शर्त है कि सदनों के विनिश्चय को जनता का बहुमत अनुमोदित करे। स्विस संविधान में भी विधानमंडल संशोधन विधेयक पारित कर सकता है। लेकिन जनता के अनुसमर्थन की आवश्यकता है।” उन्होंने अनेक उदाहरण दिए। भारत में संशोधन की शक्ति विधायिका में निहित है। उन्होंने सभा में विचाराधीन विधेयक का विवेचन किया, ”हम संविधान संशोधन को तीन श्रेणियां में बांटते हैं। एक श्रेणी में संसद का साधारण बहुमत पर्याप्त है। दूसरी श्रेणी के संशोधन में दो तिहाई बहुमत आवश्यक है। तीसरी श्रेणी में देश की आधे से अधिक विधानसभाओं का समर्थन आवश्यक है।” यहां संशोधन की पूरी प्रक्रिया औचित्यपूर्ण है।

संविधान सभा में संशोधन प्रक्रिया को सरल बनाने की मांग थी कि आमजन राजनैतिक प्रणाली को बदलने की मांग कर सकते हैं। जन असंतोष प्रकट करने का कोई मार्ग भी होना चाहिए। डॉक्टर आम्बेडकर ने कहा, ”जो संविधान से असंतुष्ट हैं उन्हें दो तिहाई बहुमत प्राप्त करना होगा। यदि वह व्यस्क मत के आधार पर निर्वाचित संसद में दो तिहाई बहुमत भी नहीं पा सकते तो यह मान लेना चाहिए कि संविधान के प्रति असंतोष में जनता उनके साथ नहीं है।” उच्चतम न्यायालय ने स्थापना दी थी कि हमारे संविधान का कोई भाग ऐसा नहीं है जिसका संशोधन नहीं हो सकता। गोलकनाथ के चर्चित मुकदमे में 11 जजों की विशेष न्यायपीठ ने 6 न्यायाधीशों के बहुमत से पूर्व विनिश्चय को उलट दिया था और कहा था ”यद्यपि अनुच्छेद 368 में कोई अलग अपवाद नहीं है। लेकिन मूल अधिकारों की प्रवृत्ति ही ऐसी है कि वह अनुच्छेद 368 में संशोधन प्रक्रिया के अधीन नहीं हो सकते। यदि ऐसे किसी अधिकार का संशोधन करना है तो नई संविधान सभा बुलानी पड़ेगी।”

फिर केशवानंद वाद का चर्चित फैसला आया। गोलकनाथ के वाद के समय से ही प्रश्न उठाया जा रहा था कि, ”क्या मौलिक अधिकारों (भाग-3) के बाहर भी संविधान का कोई उपबंध है जो संशोधन की प्रक्रिया से मुक्त है?” केशवानंद के मुकदमे में बहुमत ने गोलकनाथ के मत को उलट दिया कि अनुच्छेद 368 के अधीन मूल अधिकारों का संशोधन नहीं हो सकता। एक अन्य बड़ी बात भी न्यायालय ने कही है कि संविधान के कुछ आधारिक लक्षण हैं जिनका संशोधन नहीं किया जा सकता। यदि संविधान संशोधन अधिनियम संविधान की आधारिक संरचना में परिवर्तन के लिए है तो न्यायालय उसे शक्तिवाह्य के आधार पर शून्य घोषित करने का अधिकारी होगा। न्यायालय ने भारत की सम्प्रभुता, अखंडता, परिसंघीय प्रणाली, न्यायायिक पुर्नविलोकन, संसदीय प्रणाली आदि अनेक विषयों को संविधान के आधारिक लक्षण बताए।

दरअसल चुनाव के मूलभूत मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए इंडी गठबंधन संविधान खत्म करने की निराधार कल्पना दोहरा रहा है। संविधान में आपातकाल के लिए देश की आतंरिक अशांति को आधार बताया गया है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही आतंरिक अशांति से पीड़ित थीं। देश में शांति थी। लोकतांत्रिक आन्दोलन बेशक थे। उन्होंने आपातकालीन प्रावधान (अनुच्छेद 352) का दुरुपयोग किया। इंडी गठबंधन को आपातकाल 1975-77 के समय पारित 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 का अध्ययन करना चाहिए। 42वें संशोधन के माध्यम से संविधान के 53 अनुच्छेद एक साथ बदले गए। सातवीं अनुसूची में भी परिवर्तन किए गए। महत्वपूर्ण सिद्धान्तों को बदल दिया गया। संविधान के किसी उपबंध का उल्लंघन करने के आधार पर उसकी संवैधानिकता को चुनौती देने के लिए संघ और राज्यों के कानून में भेद किया गया। यह उपबंध किया गया कि कोई उच्च न्यायालय किसी केन्द्रीय विधि या जिसमें ऐसी विधि के अंतर्गत अधीनस्थ विधान भी सम्मिलित हैं, संविधान विरुद्ध होने के आधार पर अविधि मान्य नहीं कर सकेगा।

42वां संशोधन न्यायपालिका की शक्ति को घटाने वाला था और मौलिक अधिकारों की भी। उच्चतम न्यायालय अपनी अधिकारिता (अनुच्छेद 32) में किसी राज्य विधि को असंवैधानिक घोषित नहीं करेगा। संविधान संशोधन अधिनियमों के न्यायायिक पुर्नविलोकन के अधिकार का भी संशोधन हुआ। उपबंध किया गया कि जिस विधि को संविधान संशोधन विधि बताया जाएगा, उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। नीति निदेशक तत्व (अनुच्छेद 37) किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है। लेकिन उपबंध किया गया कि किसी निदेशक तत्व को क्रियान्वित करने वाली विधि को मूल अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर न्यायायिक पुनर्विलोकन से मुक्त रखा जाएगा। यह मूल संविधान के ठीक उल्टा है। संविधान को तहस-नहस करने का यह प्रयास निन्दनीय है।

इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने संविधान और उसकी आत्मा को ही कुचल दिया था। 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी की सरकार आई। नई सरकार ने 43वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से न्यायायिक पुर्नविलोकन के न्यायपालिका के अधिकार की बहाली की। सभी जनविरोधी प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया। भारतीय संविधान के इतिहास में संविधान के साथ छेड़खानी का निन्दनीय कृत्य दूसरा नहीं मिलता। संविधान के प्रति भारतीय जन गण मन की निष्ठा है। संविधान बदलने या पूरा संविधान ही खारिज करने और तानाशाही लाने जैसे आरोप हास्यास्पद हैं। वे संविधान बदलने या हटाने की बात उठाकर आपातकाल की संवैधानिक त्रासदी याद दिला रहे हैं। इस दृष्टि से उनका यह कृत्य उपयोगी है। आपातकाल संवैधानिक त्रासदी है। आपातकाल की तानाशाही अत्याचार और संविधान को तहस-नहस करने के कृत्यों का पाठ और पुर्नपाठ जरूरी है।

Digiqole Ad

Rama Niwash Pandey

https://ataltv.com/

Related Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *