भारत के आध्यात्मिक एवं सामाजिक ताने बाने की शिल्पकार थी हमारी संत परम्परा- ओमप्रकाश
आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, भौतिक तथा अन्य सभी दृष्टियों से समाज का उत्थान हमारे संतों-महापुरुषों के द्वारा ही हुआ है। संतों ने ही एक दूसरे को उन्नत करने का भाव तथा मानव को महामना बनाने वाला धर्म, संस्कृति के सिद्धान्तों को समाज में स्थापित किया। उन्होंने समाज के पिछड़े, अभावग्रस्त लोगों को भोजन, भजन, कीर्तन, सत्संग लाभ एवं जीवनोपयोगी वस्तुएं व आर्थिक सहायता देकर उन्हें स्वधर्म के प्रति निष्ठावान बनाया व धर्मांतरण से बचाया। समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा।
यह विचार राष्ट्रवादी विचारक एवं इतिहासकार ओमप्रकाश ने समुत्कर्ष संस्कार माला ‘जीवन पुष्प चढ़ाकर हम आराधना करेंगे’ में व्यक्त किए। समुत्कर्ष समिति द्वारा भारतीय स्वातंत्र्य के अमृत महोत्सव के अन्तर्गत मासिक समुत्कर्ष विचार गोष्ठी के 111 महीने पूरे होने के विशेष अवसर पर समुत्कर्ष संस्कार माला ‘जीवन पुष्प चढ़ाकर हम आराधना करेंगे’ का आयोजन किया गया था। रविवार देर शाम आायोजित इस कार्यक्रम में भारत माता के चित्र के समक्ष दीप प्रज्लवन कर मंचस्थ अतिथियों ने समुत्कर्ष पत्रिका के 127वें अंक का विमोचन भी किया।
इतिहासविद ओमप्रकाश ने इस अवसर पर प्रथम सत्र में कहा कि भारतीय समाज की मौलिक विशिष्टता है त्याग, बलिदान, तप, सेवा और समर्पण। किसी के पास तन, मन, धन समर्पण का भाव है तो उसे किसी ब्रह्मांड में कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होगी। दान, दया, सत्य, समर्पण, परोपकार, मानवीयता, सेवा ही ईश्वरीय कार्य हैं। परमात्मा को प्रसन्न करने का सहज मार्ग सेवा है। पूजा का अर्थ है समर्पण की भावना को प्रकट करना। अभावों में भी श्रद्धाभाव के साथ, कष्ट उठाते हुए भी, निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर जो भी दिया जाता है, वही सच्चा समर्पण है। सुदीर्घकालीन मान्यता है कि आत्मत्याग, आत्मयज्ञ और आत्मबलिदान के द्वारा ही भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लौ विश्व मानव को आलोकित करती रहेगी।
भारत में लगभग 1000 वर्ष के इस विदेशी मुस्लिम-अंग्रेज शासन काल में भारतीय जनमानस पर विदेशी आक्रमण की समस्त क्रूर विद्रूपताओं के बावजूद अपने चिरंतन उदात्त मानवीय मूल्यों के संवाहक संतों के कारण यह भारतीय संस्कृति आज भी अजस्र रूप से प्रवाहित हो रही है। इस राजनीतिक पराभव काल में भारत के महान् संतों ने संपूर्ण भारत के गांव-गांव में हिंदू जनता को सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक रूप से पूरी तरह सुरक्षित रखा।
द्वितीय सत्र में ओमप्रकाश ने आदि गुरु शंकराचार्य का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने भारतीय सनातन परम्परा को पूरे देश में फैलाने के लिए भारत के चारों कोनों में चार शंकराचार्य मठों, चारों कुंभों की व्यवस्था, वेदांत दर्शन के शुद्धाद्वैत संप्रदाय के शाश्वत जागरण के लिए दशनामी नागा संन्यासी अखाड़ों की स्थापना, पंचदेव पूजा का प्रतिपादन किया। उन्होंने मनुष्य को छोटे-छोटे स्वार्थों एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठाया तथा उसकी संवेदना को विस्तार दिया। आद्य शंकर के समन्वयकारी दर्शन ने उस समय प्रचलित भिन्न-भिन्न वैचारिक एवं धार्मिक धाराओं को भी सनातन धारा में सम्मिलित कर लिया।
समर्थ गुरु रामदास के के कर्तत्व को स्मरण करते हुआ ओमप्रकाश ने बताया कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी प्रयत्न में से छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य प्रादुर्भूत हुए और उन्हें अपने जीवनकाल में ही स्वराज्य स्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य प्राप्त हो सका।
ओमप्रकाश ने मेवाड़ के संस्थापक बप्पा रावल के गुरु हारित राशी, गुरु गोविन्द सिंह, रामानुजाचार्य, गुरु गोरखनाथ, दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस के जीवन कार्य को उपस्थित श्रोताओं के समक्ष विस्तार से रखा।
नगर निगम परिसर स्थित पंडित दीनदयाल उपाध्याय सभागार में सम्पन्न हुई व्याख्यान माला की अध्यक्षता समुत्कर्ष समिति अध्यक्ष संजय कोठारी ने की। इस अवसर पर समिति सचिव विनोद चपलोत, समुत्कर्ष पत्रिका के संपादक वैद्य रामेश्वर प्रसाद शर्मा, उपसंपादक गोविन्द शर्मा भी मंचासीन थे। रवि बोहरा ने ‘हे जन्मभूमि भारत, हे कर्मभूमि भारत, जीवन पुष्प चढ़ाकर आराधना करेंगे’ तथा प्रेक्षा बोहरा ने ‘बढ़ रहे बढ़ते रहेंगे, ध्येयवादी दृढ़ चरण, विश्व गुरु-पद परम् वैभव मां करे फिर से वरण’ गीत की प्रस्तुतियां दीं। समुत्कर्ष समिति को अपनी श्लाघनीय सेवाओं के लिए सामाजिक कार्यकर्त्ता वेब डिजाइनर धर्मेश व्यास, समुत्कर्ष पत्रिका सम्पादन सहकार के लिए डॉ. अनिल कुमार दशोरा तथा पृष्ठ संयोजन के लिए तरुण चन्देरिया का अभिनंदन किया गया। समुत्कर्ष समिति के विभिन्न आयामों का परिचय पीयूष दशोरा ने दिया।





