• October 16, 2025

वर्धा विश्वविद्यालय में गांधी के नाम पर तिजारत

 वर्धा विश्वविद्यालय में गांधी के नाम पर तिजारत

कामसूत्र पर साधु समाज में चर्चा। निजी पूंजी की श्रेष्ठता पर माओवादी सभा में गोष्ठी। क्या अभिप्राय होता है ? ठीक ऐसा ही हुआ 25 अक्टूबर को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (वर्धा) में। यहां ब्रिटिश नृशंस उपनिवेशवादी थॉमस मैकाले की 223वीं जयंती मनाने की तैयारी की गई। कार्यभारी कुलपति दलित प्राध्यापक लेल्ला कारुण्यकर ने यह सब रचा। वे अंबेडकर दलित अध्ययन केंद्र के निदेशक भी हैं। तेलुगुभाषी हैं। लखनऊ में भी रहे हैं। भला हो राष्ट्रवादी छात्रों का जिन्होंने बवंडर उठाया कि भारतीय शिक्षा पद्धति के घोर शत्रु और नाशक मैकाले की जन्मगांठ बापू की संस्था में न मने ? मानो कृष्ण मंदिर में गौहत्या होने से बच गई। विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार कादर नवाज खान ने तत्काल नोटिस द्वारा प्रो. कारुण्यकर को निर्देश दिया कि भारतीय संस्कृति, दृष्टि और भावना के विपरीत रहे मैकाले की जयंती कदापि न मनाई जाए। मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति-2020 से ऐसा समारोह तालमेल नहीं रखता। शायद ही भारत का कोई शिक्षा संस्थान है जिसका इतना सीधा नाता राष्ट्रपिता से रहा हो तथा जहां नीति गांधीवादी चिंतन, नीति, कार्य, निर्णय और व्यवहार के सरासर प्रतिकूल ऐसा हुआ हो।

इस विश्वविद्यालय की स्थापना भारत सरकार ने सन् 1996 में संसद द्वारा पारित एक अधिनियम द्वारा की थी। मगर यह शिक्षा संस्थान कम्युनिस्ट और कांग्रेस सत्तावानों की कुट्रनीतियों का केंद्र रहा। जब रिटायर्ड पुलिसवाले वीएन राय इसके कुलपति नामित हुए तो इसमें बिना अर्हता, योग्यता और अमान्य लोगों की कई नियुक्तियां की गईं। अतः उनके जाते ही, वे सब हटा दिए गए। इस विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रकाण्ड विद्वान पं. गिरीश्वर मिश्र जी ने इन घटनाओं पर क्षोभ तथा विषाद व्यक्त किया है। उनके अग्रज स्व. पं. विद्यानिवास मिश्र जी नवभारत टाइम्स के संपादक रहे हैं।

इस समस्त प्रकरण की उच्चस्तरीय जांच मोदी काबीना के शिक्षामंत्री धर्मेंद्र प्रधान को तत्काल करनी चाहिए। समस्त वित्तीय अनियमिततायें, प्रशासनिक धांधलियां, यौन शोषण प्रकरण, पद का दुरुपयोग, भाई-भतीजावादी नियुक्तियों आदि की पड़ताल हो। यहां बापू के नाम पर तिजारत हुई। बुनियादी शिक्षा पद्धति का सेवाग्राम एक प्रस्थान बिंदु रहा। गांधीजी ने 23 अक्टूबर 1937 को ‘नयी तालीम’ की योजना बनायी थी जिसे राष्ट्रव्यापी व्यावहारिक रूप दिया जाना था। उनके शैक्षिक विचार समकालीन शिक्षाशास्त्रियों के विचारों से मेल नहीं खाते थे। इसलिये उनके विचारों का विरोध हुआ। गांधीजी ने कहा था कि नयी तालीम का विचार भारत के लिए उनका अन्तिम एवं सर्वश्रेष्ठ योगदान है। गांधीजी के लम्बे समय तक विचारों के गहन मंथन के परिणामस्वरूप नयी तालीम का दर्शन एवं प्रक्रिया का प्रादुर्भाव हुआ। दुर्भाग्यवश इस कल्याणकारी शिक्षा-प्रणाली का राष्ट्रीय स्तर पर भी समुचित प्रयोग नहीं हो पाया। फलस्वरूप आजतक भारत गांधीजी के सपनों के अनुरूप सार्थक और सही स्वराज प्राप्त करने में असमर्थ रहा।

देश में पूजीपतियों पर आश्रित सभी शिक्षण-संस्थाएं व्यावसायिक रूप में सक्रिय तो हैं, पर गरीबों की पहुंच से बाहर हैं। भारत की स्वाधीनता के 75 से अधिक वर्ष बीतने के पश्चात भी ऐसे बच्चों की संख्या काफी अधिक है, जिन्होंने विद्यालय के द्वार तक नहीं देखे हैं। जो विद्यालय जाने का सामर्थ्य रखते हैं, उन्हें लॉर्ड मैकाले की परम्परा से चली आ रही अंग्रेजी शिक्षा के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता।

अतः चर्चा हो मैकाले पर ही। यह राजनेता बड़ा स्पष्ट था कि भारतीय शिक्षा पद्धति ऐसी हो कि केवल ब्रिटिश राज के लिए क्लर्क, दफ्तरी, चपरासी तैयार करें। गुलाम हिंदुस्तानियों में हीन भावना भरी जाए। असली चिंतनशील मस्तिष्क के केवल मानसिक परछाइयां ही बनी रहें। स्वतंत्र भारतीय सोच तो अंग्रेजों के लिए असह्य थी। मैकाले की समिति ने सिफारिश की थी कि भारतीय स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना चाहिए। पाठ्यक्रम पश्चिमी मूल्यों और विचारों पर आधारित होना चाहिए। इन्हीं सिफारिशों को लागू किया गया और अंग्रेजी ही भारतीय स्कूलों में शिक्षा की प्रमुख भाषा बन गई। इसीलिए रवीद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन की स्थापना की। गुरुकुल प्रणाली को मजबूत बनाने का प्रयास चला। अश्वेत मनोवैज्ञानिक फ्रांटेज उमर फेनन तथा कवि-राजनेता अइमे सीजेयर ने फ्रांसीसी उपनिवेशवाद के विरुद्ध अपनी स्वाधीन राष्ट्र के लिए देसी भाषा का संघर्ष चलाया था। ऐसा ही संघर्ष पुर्तगाली राज के भाषायी शोषण के खिलाफ गुलाम गोवा में ट्रिस्टों ब्रगांजा कुंहों ने चलाया था। मगर भारत में संगठित और सुनियमित प्रयास गांधी जी का ही था। जब भारत आजाद हुआ तो विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष के नाते 1949 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (बाद में राष्ट्रपति) ने धार्मिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल करने का सुझाव रखा था। पर कथित सेक्युलर जवाहरलाल नेहरू ने इसे नहीं माना।

आखिर यह थॉमस मैकाले था कौन ? ब्रिटिश राज में यह युद्ध सचिव और पोस्टमास्टर जनरल था। भारत को भ्रष्ट करने की नीयत उसने स्पष्ट कर दी थी। उसने कहा था, ‘मैंने भारत की चातुर्दिक यात्रा की है और मुझे इस देश में एक भी याचक अथवा चोर नहीं दिखा, मैंने इस देश में सांस्कृतिक संपदा से युक्त उच्च नैतिक मूल्यों तथा असीम क्षमता वाले व्यक्तियों के दर्शन किए हैं। मेरी दृष्टि में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत जो कि इस देश का मेरुदंड रीढ़ है उसको खंडित किए बिना हम इस देश पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं।’

लार्ड मैकाले ने तब प्रस्ताव किया कि ‘इस देश की प्राचीन शिक्षा पद्धति, उनकी संस्कृति को इस प्रकार परिवर्तित कर दें। परिणाम स्वरूप भारतीय यह सोचने लगें कि जो अंग्रेज ही श्रेष्ठ एवं महान हैं। इस तरह से वे अपना आत्मसम्मान, आत्म गौरव तथा उनकी अपनी मूल संस्कृति को खो देंगे और वह वही बन जाएंगे जो कि हम चाहते हैं, पूर्ण रूप से हमारे नेतृत्व के अधीन एक देश। भारत की संपत्ति उनकी शिक्षा में है हम उनकी शिक्षा पद्धति को जब बिगाड़ देंगे तब भारत हमारे अधीन हो जाएगा।’ इंग्लैंड की संसद में भाषण : 2 फरवरी 1835)। तो ऐसे व्यक्ति थे मैकाले, जिन्हें प्रो. करुणाकरजी अपना हीरो मानकर पेश कर रहे थे। उन्होंने इस बापू के नामवाले शीर्ष संस्थान का बेड़ा गर्क करना चाहा। मगर विफल रहे।

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Rama Niwash Pandey

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