• October 14, 2025

ठाकरे परिवार की खिसकती सियासी जमीन: मराठी अस्मिता के बहाने नई जंग

मुंबई, 7 जुलाई 2025: महाराष्ट्र की सियासत में ठाकरे परिवार का नाम दशकों तक मराठी अस्मिता का पर्याय रहा। बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना ने मराठी माणूस के मुद्दे पर अपनी पहचान बनाई, लेकिन आज उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे की सियासी जमीन खिसकती दिख रही है। 2024 के विधानसभा चुनाव में उद्धव की शिवसेना (UBT) का निराशाजनक प्रदर्शन और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का खाता खुलना इसकी बानगी है। ऐसे में, दोनों चचेरे भाइयों का 20 साल बाद एक मंच पर आना और मराठी अस्मिता के नाम पर ‘विजय रैली’ का आयोजन चर्चा का विषय बना है। यह कदम क्या सियासी मजबूरी है या ठाकरे परिवार की खोई जमीन वापस पाने की रणनीति? मराठी-हिंदी भाषा विवाद को हवा देकर दोनों भाई बीजेपी और एकनाथ शिंदे की चुनौती से निपटने की कोशिश में हैं।

ठाकरे परिवार की सियासी कमजोरी 

ठाकरे परिवार की सियासी ताकत कभी शिवसेना की एकजुटता में थी, लेकिन 2005 में राज ठाकरे के अलग होने और 2022 में एकनाथ शिंदे की बगावत ने इसे कमजोर किया। राज ने मनसे बनाकर मराठी अस्मिता की राजनीति की, मगर 2009 में 5.7% वोट से शुरूआत करने वाली उनकी पार्टी 2024 में मात्र 1.6% वोट पर सिमट गई। वहीं, उद्धव की शिवसेना (UBT) को 2024 में 10% वोट मिले, जो 2009 के 16.3% से काफी कम है। एकनाथ शिंदे ने शिवसेना का नाम और चुनाव चिह्न हासिल कर उद्धव को बड़ा झटका दिया। 2022 में उद्धव की सरकार गिरने के बाद उनकी सियासी विश्वसनीयता पर सवाल उठे। बीजेपी की बढ़ती ताकत और शिंदे गुट की जीत ने ठाकरे परिवार को हाशिए पर धकेल दिया है।

मराठी अस्मिता का नया दांव 

मराठी-हिंदी भाषा विवाद पर उद्धव और राज का एक मंच पर आना सियासी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। 5 जुलाई 2025 को वर्ली में ‘विजय रैली’ में दोनों ने मराठी अस्मिता के नाम पर बीजेपी और देवेंद्र फडणवीस पर निशाना साधा। इस रैली का कारण फडणवीस सरकार का त्रिभाषा नीति लागू करने का फैसला था, जिसे बाद में वापस लेना पड़ा। दोनों भाइयों ने मराठी वोटरों को एकजुट करने की कोशिश की, लेकिन उनके भड़काऊ बयानों ने विवाद खड़ा किया। उद्धव ने कहा, “मराठी के लिए गुंडागर्दी करनी पड़े तो करेंगे,” जबकि राज ने हिंदी को ‘थोपा हुआ’ बताया। यह रणनीति बीएमसी चुनाव में मराठी वोटरों को लामबंद करने की कोशिश है, मगर इसका असर अल्पसंख्यक और गैर-मराठी वोटरों पर पड़ सकता है।

क्या बदलेगी सियासी तस्वीर? 

ठाकरे बंधुओं का एकजुट होना महाराष्ट्र की सियासत में नई हलचल ला सकता है, मगर चुनौतियां कम नहीं हैं। मराठी अस्मिता का मुद्दा मुंबई और ठाणे में प्रभावी हो सकता है, लेकिन पूरे महाराष्ट्र में जाति और धर्म आधारित राजनीति हावी है। राज और उद्धव के गठजोड़ से मराठी वोटरों का ध्रुवीकरण हो सकता है, पर यह बीजेपी और शिंदे गुट के लिए कितना नुकसानदेह होगा, यह स्पष्ट नहीं है। विशेषज्ञों का मानना है कि मराठी अस्मिता अकेले चुनाव नहीं जिता सकती। उद्धव की कांग्रेस और शरद पवार के साथ गठबंधन की मजबूरी और राज के विवादित बयान उनके मुस्लिम वोट बैंक को प्रभावित कर सकते हैं। बीएमसी चुनाव में मराठी वोटरों का 40% हिस्सा अहम होगा, लेकिन ठाकरे बंधुओं का यह दांव कितना कारगर होगा, यह भविष्य बताएगा।

निष्कर्ष
ठाकरे परिवार की सियासी जमीन खिसकने की कहानी शिवसेना के विभाजन और बीजेपी की बढ़ती ताकत से जुड़ी है। उद्धव और राज का मराठी अस्मिता के नाम पर एकजुट होना उनकी खोई साख को वापस पाने की कोशिश है। 2024 के चुनावों में उद्धव की शिवसेना (UBT) और राज की मनसे का कमजोर प्रदर्शन उनकी सियासी कमजोरी को दर्शाता है। मराठी-हिंदी विवाद को हवा देकर दोनों भाई बीएमसी और आगामी स्थानीय निकाय चुनावों में मराठी वोटरों को लामबंद करना चाहते हैं। हालांकि, यह रणनीति जोखिम भरी है, क्योंकि हिंदी विरोध से गैर-मराठी और अल्पसंख्यक वोटरों का नुकसान हो सकता है। बीजेपी और शिंदे गुट की मजबूत स्थिति को चुनौती देने के लिए ठाकरे बंधुओं को गठबंधन या विलय जैसे बड़े फैसले लेने पड़ सकते हैं। यह एकजुटता सियासी मजबूरी है या मराठी गौरव की नई शुरुआत, इसका जवाब बीएमसी चुनावों के नतीजे देंगे। फिलहाल, ठाकरे परिवार की सियासी विरासत बचाने की जंग जारी है।
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Rama Niwash Pandey

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