• December 26, 2025

कुरजा और बरगवा में हनुमानजी के दर्शन मात्र से दूर हो जाते हैं सारे कष्ट

 कुरजा और बरगवा में हनुमानजी के दर्शन मात्र से दूर हो जाते हैं सारे कष्ट

जिले की दो प्रसिद्ध हनुमान मंदिर ऐसे भी हैं जिनके दर्शन मात्र से भक्तों के कष्ट दूर हो जाते हैं। जहां हर मंगलवार और शनिवार को यहां दूर-दूर से लोग दर्शन के लिए पहुंचते हैं। कुरजानाथ के हनुमानजी के दर्शन मात्र से सारे भक्तों के कष्ट दूर हो जाते हैं, जिनकी सरई पेड़ के तने में मूर्ति मिली थी। वहीं बरगवानाथ बजरंगबली पर भक्तों की गहरी आस्था हैं। यह प्रतिमा सोन नद से प्राप्त हुई थी।

बिजुरी नगर के वार्ड क्रमांक 13 कुरजा में स्थित हनुमान मंदिर लोगों की आस्था एवं श्रद्धा का प्रमुख केंद्र है। वर्ष 1932 में जिस जगह पर वर्तमान में कुरजा मंदिर स्थापित है, वहीं स्थित सरई पेड़ के तने में मूर्ति ग्रामीणों को दिखाई पड़ी थी। जिसके भीतर स्थित मूर्ति ग्रामीणों ने देखने के पश्चात इसकी प्राण प्रतिष्ठा उसी स्थान में की गई थी। इस मूर्ति की खासियत यह है कि इसके एक हाथ तथा एक पैर नहीं है। मूर्ति जिस पेड़ के नीचे रखी हुई थी आकाशीय बिजली पेड़ पर गिरने के कारण मूर्ति का एक पैर तथा हाथ क्षतिग्रस्त हो गया था। जिसके कारण स्थानीय ग्रामीणों के द्वारा श्रद्धा पूर्वक इन्हें लंगड़ा दादा के नाम से बुलाते हैं। प्रतिवर्ष इस मंदिर में कार्तिक पूर्णिमा पर मेले का आयोजन भी किया जाता है। मूर्ति मिलने के कई वर्षों तक पेड़ के नीचे ही स्थानीय लोग इसकी पूजा करते थे। जिसके पश्चात वर्ष 1962 में रेल लाइन का निर्माण किए जाने के दौरान ठेकेदार के द्वारा मंदिर का निर्माण कराया गया था।

अनूपपुर के नगर परिषद बरगवां में स्थित बरगवांनाथ हनुमान यहां पहुंचने वाले भक्तों के सारे कष्ट दूर करते हैं। बजरंगबली की यह प्रतिमा सोन नदी में ग्रामीणों को मिली थी। जिसके बाद नदी से बाहर निकाल कर कुछ दिनों तक नदी तट पर ही ग्रामीणों ने जल अर्पित करते हुए पूजा-अर्चना प्रारंभ की। मंदिर के पुजारी अविरल गौतम बताते हैं कि उनके दादा राम प्रपन्न मिश्रा को यह मूर्ति वर्ष 1958 में सोन नदी में मिली थी। जिसके बाद कुछ दिनों तक नदी तट पर ही ग्रामीणों द्वारा जल अर्पित कर इसकी पूजा अर्चना प्रारंभ की गई। जिसके पश्चात मूर्ति को धिरौल के इलाकेदार बैलगाड़ी से लेकर गांव की ओर जा रहे थे। तभी बरगवां पहुंचते ही बैलगाड़ी के पहिए टूट गए। जिसे भगवान का संकेत मानकर मूर्ति को वही समीप स्थित पीपल के पेड़ पर स्थापित कर पूजा-अर्चना प्रारंभ कर दी गई।

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