आईआईटी में सीटें बढ़ीं, लेकिन लड़कियों की संख्या में सुधार क्यों नहीं? चुनौतियां बनी हुईं
15 सितम्बर 2025, लखनऊ: नई दिल्ली, 15 सितंबर 2025: भारत के प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) में दाखिले का सपना हर साल लाखों छात्र देखते हैं। लेकिन हाल की रिपोर्ट्स से साफ हो रहा है कि कुल सीटें बढ़ने के बावजूद लड़कियों की संख्या में कोई खास इजाफा नहीं हो रहा। जॉइंट इम्प्लीमेंटेशन कमेटी (जेआईसी) की 2025 की रिपोर्ट के मुताबिक, आईआईटी में कुल 18,188 सीटें हैं, लेकिन इनमें लड़कियों की हिस्सेदारी सिर्फ 20.15 प्रतिशत ही है। यानी करीब 3,664 लड़कियां ही दाखिला ले पाईं। 2020 में जब सीटें 16,061 थीं, तब भी लड़कियों का प्रतिशत 19.90 था। मतलब, सीटें बढ़ीं, लेकिन लड़कियों की संख्या वही पुरानी बनी हुई है।
यह समस्या नई नहीं है। पिछले पांच सालों से आईआईटी में लड़कियों का प्रतिशत 19 से 21 के बीच घूम रहा है। सरकार ने 2018 में सुपरन्यूमरेरी सीट्स स्कीम शुरू की, जिसमें लड़कियों के लिए अतिरिक्त सीटें जोड़ी गईं। इस स्कीम का मकसद था कि हर आईआईटी में कम से कम 20 प्रतिशत लड़कियां हों। लेकिन रिपोर्ट्स बताती हैं कि यह लक्ष्य तो पूरा हो गया, पर आगे बढ़ नहीं पा रहा। विशेषज्ञ कहते हैं कि असली समस्या जेंडर गैप को भरने के लिए सिर्फ सीटें बढ़ाने से हल नहीं हो सकती। सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बाधाएं अभी भी लड़कियों को पीछे धकेल रही हैं।
आईआईटी का सफर शुरू होता है जेईई मेन और एडवांस्ड परीक्षा से। 2025 में जेईई एडवांस्ड के लिए करीब 1.90 लाख छात्रों ने रजिस्ट्रेशन कराया, जिसमें 43,000 लड़कियां थीं। लेकिन क्वालीफाई करने वाली लड़कियों की संख्या सिर्फ 9,404 रही, जो कुल क्वालीफायर्स का 17.3 प्रतिशत है। यह 2017 के मुकाबले तो बेहतर है (तब 7,137 लड़कियां क्वालीफाई हुईं), लेकिन फिर भी पुरुषों से काफी पीछे। दाखिले के बाद भी, पुराने आईआईटी जैसे बॉम्बे, दिल्ली, मद्रास और कानपुर में लड़कियों का प्रतिशत सबसे अच्छा है—लगभग 20-21 प्रतिशत। लेकिन नए आईआईटी जैसे गोवा, तिरुपति और जम्मू में भी यही औसत है। आईआईटी खड़गपुर में तो यह 17 प्रतिशत के आसपास अटका हुआ है।
सीटें क्यों बढ़ीं? सरकार ने आईआईटी को मजबूत बनाने के लिए कुल सीटें 2020 के 16,061 से बढ़ाकर 2025 में 18,188 कर दीं। इसमें सुपरन्यूमरेरी सीट्स का बड़ा रोल है। 2018 में शुरू हुई यह स्कीम लड़कियों के लिए अतिरिक्त सीटें जोड़ती है, बिना पुरुषों की सीटें कम किए। 2025 में कुल 3,300 के करीब सुपरन्यूमरेरी सीटें लड़कियों के लिए रिजर्व हैं। इससे कुल दाखिले 17,695 से बढ़कर 18,188 हो गए। लेकिन लड़कियों की संख्या सिर्फ 3,185 से 3,664 हुई—यह इजाफा सीटों के अनुपात में बहुत कम है। मतलब, स्कीम ने गिरावट तो रोकी, लेकिन तेजी से बढ़ोतरी नहीं की।
अब सवाल यह है कि लड़कियां क्यों कम आ रही हैं? विशेषज्ञों के मुताबिक, कई वजहें हैं। पहली, सामाजिक दबाव। कई परिवारों में लड़कियों को इंजीनियरिंग जैसे टेक्निकल फील्ड में भेजने से पहले सोचना पड़ता है। ‘लड़कियां मैथ्स या फिजिक्स में कमजोर होती हैं’—यह पुरानी धारणा अभी भी बनी हुई है। स्कूल लेवल पर ही ओलंपियाड्स जैसे कॉम्पिटिशन में लड़कियों की भागीदारी कम है। 2024 के नेशनल स्टैंडर्ड एग्जामिनेशन इन जूनियर साइंस में लड़कियां सिर्फ 43 प्रतिशत थीं। इससे जेईई तक पहुंचते-पहुंचते संख्या और कम हो जाती है।
दूसरी बड़ी समस्या है कोचिंग का खर्चा। जेईई की तैयारी के लिए कोटा या दिल्ली जैसे शहरों में जाना पड़ता है। कई परिवारों के पास लड़कियों को भेजने के पैसे नहीं होते। सुरक्षा की चिंता भी बड़ी है। अकेले शहर में रहना, हॉस्टल का माहौल—ये सब डराते हैं। एक रिपोर्ट में कहा गया कि लड़कियां टॉप रैंक कम लाती हैं क्योंकि नेगेटिव मार्किंग वाली परीक्षा में वे रिस्क कम लेती हैं। कंप्यूटर साइंस या इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे पॉपुलर ब्रांच में कॉम्पिटिशन इतना ज्यादा है कि लड़कियां पीछे रह जाती हैं।
परिवार का समर्थन भी कम है। कई जगह लड़कियों को घर संभालने या शादी की बात सोचने को कहा जाता है। आत्मविश्वास की कमी भी एक वजह है। आईआईटी जैसे संस्थानों में माहौल अभी भी मेल-डॉमिनेटेड है। लेकिन अच्छी बात यह है कि स्कीम से लड़कियां अब ज्यादा क्वालीफाई कर रही हैं। 2016 में सिर्फ 4,570 लड़कियां जेईई एडवांस्ड क्वालीफाई कर पाईं, जबकि 2024 में यह 7,964 हो गई। दाखिले में भी ट्रिपल इजाफा हुआ—2017 में 995 लड़कियां, 2023 में 3,411।
कई आईआईटी ने इस समस्या से निपटने के लिए कदम उठाए हैं। आईआईटी दिल्ली ने डाइवर्सिटी एंड इंक्लूजन ऑफिस खोला है, जहां लड़कियों के लिए मेंटरशिप प्रोग्राम चलते हैं। आईआईटी मद्रास ने आउटरीच प्रोग्राम शुरू किए, जहां स्कूलों में जाकर लड़कियों को प्रोत्साहित किया जाता है। स्कॉलरशिप्स भी दी जाती हैं। आईआईटी बॉम्बे और कानपुर में स्पेशल काउंसलिंग सेशन्स होते हैं, जहां लड़कियों के पैरेंट्स को बुलाया जाता है। इनसे कुछ सुधार हुआ है—2025 में आईआईटी तिरुपति में 21.57 प्रतिशत, रुड़की में 20.50 प्रतिशत और मद्रास में 21.09 प्रतिशत लड़कियां हैं।
फिर भी, विशेषज्ञ कहते हैं कि समस्या की जड़ स्कूल लेवल पर है। अगर बचपन से ही लड़कियों को साइंस और मैथ्स में रुचि बढ़ाई जाए, तो आईआईटी तक पहुंच आसान हो जाएगी। सुपरन्यूमरेरी स्कीम ने तो दरवाजा खोला, लेकिन अंदर आने के लिए रास्ता साफ करना होगा। एक स्टडी में पाया गया कि आईआईटी में एंटर करने वाली लड़कियां बाद में अच्छा परफॉर्म करती हैं—वे ज्यादा क्रेडिट्स लेती हैं और ग्रेजुएशन समय पर पूरा करती हैं। मतलब, योग्यता की कमी नहीं, मौके की कमी है।
सरकार और आईआईटी को मिलकर और प्रयास करने होंगे। जैसे, कोचिंग सेंटर्स में लड़कियों के लिए स्पेशल स्कॉलरशिप, सेफ ट्रांसपोर्ट और मेंटल हेल्थ सपोर्ट। अगर 2036 तक भारत की आबादी में महिलाओं का प्रतिशत 48.8 हो जाएगा, तो आईआईटी में भी बैलेंस जरूरी है। वरना, टेक्नोलॉजी और इंजीनियरिंग जैसे फील्ड्स में जेंडर गैप बना रहेगा। लड़कियां कह रही हैं—हमें मौका दो, हम साबित करेंगी।
