• December 26, 2025

गीता प्रेस जनतांत्रिक, आलोचना दुर्भाग्यपूर्ण

 गीता प्रेस जनतांत्रिक, आलोचना दुर्भाग्यपूर्ण

87 की उम्र में भी वही खनकती हुई आवाज! सुबह जबलपुर से ज्ञानरंजन जी (पहल पत्रिका के संस्थापक संपादक) का टेलीफोन आया। दिल में धड़का हुआ कि मुझसे कोई गलती हुई है और डांट पड़ने वाली है। लेकिन मेरी आशंका निर्मूल साबित हुई। ज्ञान जी ने मेरे गीता प्रेस पर लिखे आलेखों (फेसबुक पोस्ट) की तारीफ की और कहा कि गीता प्रेस जैसी दुनिया की अनोखी जनतांत्रिक संस्था की आलोचना दुर्भाग्यपूर्ण है । कांग्रेस के जयराम रमेश हों या हिंदी के अन्य लेखक बुद्धिजीवी, जो भी गीता प्रेस की आलोचना कर रहे हैं वे इस देश की मिट्टी की तासीर से अनभिज्ञ हैं। गीता प्रेस दुनिया का अनोखा छापाखाना है। इसका विरोध नहीं, अध्ययन और शोध होना चाहिए।

फिर ज्ञानरंजन जी ने अपने पिता रामनाथ सुमन और गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ के रिश्तों के बारे में बताने लगे। उनके संबंध प्रगाढ़ रहे। हनुमान प्रसाद पोद्दार और रामनाथ सुमन के बीच जो पत्राचार हुआ वह उनके पास सुरक्षित है। ऐसे कोई सौ के लगभग पत्र होंगे। उन्होंने बताया कि रामनाथ सुमन ने आजादी से पूर्व कल्याण में गांधी और स्वतंत्रता संग्राम पर कोई चालीस लेख लिखे जिसे भाई जी ने बिना संपादन के प्रकाशित किया । कल्याण लेखकों को पारिश्रमिक नहीं देता था लेकिन सुमन जी को उन्होंने इन लेखों का बाकायदा पारिश्रमिक दिया ।

जब ज्ञानरंजन की माता जी यक्ष्मा से पीड़ित हुईं तो हनुमान प्रसाद पोद्दार ने उनकी वित्तीय सहायता भी की। रामनाथ सुमन जी एक तरह से कल्याण के सलाहकार की भूमिका में थे। उनकी बात सुनी जाती थी। हिंदी के बहुत से प्रमुख साहित्यकार सुमन जी की प्रेरणा से कल्याण से जुड़े और कल्याण के लिए लिखा। सुमन जी ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपनी तमाम किताबें गीता प्रेस को भेंट कर दी थीं। ज्ञानरंजन जी ने बताया कि वे सभी किताबें अभी भी गीता प्रेस के कार्यालय में सुरक्षित हैं।

प्रेमचंद ने भी कल्याण के लिए लिखा और कुछ साहित्यकारों और चित्रकारों की नौकरी के लिए भाई जी से सिफारिश भी की। सुमन जी से पोद्दारजी का मृत्यु पर्यंत संबंध बना रहा । गीता प्रेस की रविंद्रनाथ टैगोर ने प्रशंसा करते हुए कहा कि बिना सांप्रदायिकता के अपने धर्म का ऐसा प्रचार श्लाघनीय है । रामनाथ सुमन गांधीवादी थे। युवा ज्ञानरंजन का इस बात पर अपने पिता से मतभेद भी रहा । जैसा ज्ञान जी ने बताया । मैंने उन्हें (ज्ञानरंजन जी) बताया कि कुछ समय के लिए मेरे चित्रकार पिता ने भी ‘भाई जी’ के कहने से गीता प्रेस के लिए काम किया। मेरे पिता और हनुमान प्रसाद पोद्दार राजस्थान के रतनगढ़ कस्बे के रहने वाले थे लेकिन उस समय मेरे पिता कलकत्ता (अब कोलकाता) में कमर्शियल चित्रकार का काम करते थे और बड़ा बाजार की कलाकार स्ट्रीट पर रहते थे। भाई जी ने उन्हें बुलाया था और गीता प्रेस के लिए कुछ काम करने के लिए कहा था।

ज्ञान जी से बहुत देर तक बातें हुईं । बहुत-सी बातें लिखते हुए भूल रहा हूं। मुझे लगा इन बातों को भी दर्ज कर लेना चाहिए। दिल से बोझ कुछ कम हुआ! जिसके लिए मैंने लाखों के बोल सहे। गालियां खाई। बदनाम हुए । जिस सरकार/विचार का सबसे बड़ा आलोचक होने के बावजूद मुझे कहा गया कि मैं बिक चुका हूं। किसी तानाशाह या किसी धन पशु की हिम्मत नहीं जो कृष्ण कल्पित को खरीद सके ।

गीता प्रेस विवाद पर कई पोस्ट मैंने फेसबुक में लिखीं हैं, जिससे धुंधलका कुछ कम हो सके। ये मेरे अपने विचार हैं गीता प्रेस के बारे में। किसी ने लिखवाए नहीं हैं। यदि गीता प्रेस नहीं होती तो मैं अभी तक भेड़-बकरियां चराने वाला चरवाहा होता, कवि नहीं होता। हनुमान प्रसाद पोद्दार को भारत सरकार ने भारत रत्न देने की पेशकश की लेकिन उन्होंने विनम्रता पूर्वक इनकार कर दिया। तब कांग्रेस की सरकार थी। गीता प्रेस की स्थापना चूरू के जयदयाल गोयेंदका और रतनगढ़ के हनुमान प्रसाद पोद्दार ने की थी। महात्मा गांधी से गीता प्रेस का कोई झगड़ा नहीं था। वे कल्याण के लेखक थे। और उनकी ही सलाह पर आज तक गीता प्रेस कोई विज्ञापन या कोई पैसा किसी से नहीं लेता। भारत सरकार के करोड़ रुपये तो अभी ठुकराए हैं, न जाने कितने करोड़ रुपये गीता प्रेस अब तक ठुकरा चुका है। गीता प्रेस ने गांधी के रामराज्य के विचार को ही विस्तार दिया। गीता प्रेस दुनिया का सर्वश्रेष्ठ और अनोखा प्रकाशन गृह है। इतनी किताबें किसी प्रकाशन गृह से नहीं छपी। गीता और रामचरितमानस से अधिक प्रतियां शायद बाइबिल की ही छपी होंगी । गीता प्रेस दुनिया के प्रकाशन जगत का अजूबा है । काश मेरा कविता-संग्रह गीता प्रेस से छप सकता।

सबसे पहले हम यही पुस्तकें/गुटका/कितबिया ढूंढते थे, जो मुफ्त में मिलती थी। कोई तीन चार महीनों में हमारे सुदूर गांव में गीता प्रेस की किताबों से भरी मोटर आती। वह हमारे लिए उत्सव का समय होता। इन छोटी-छोटी किताबों से हमने पढ़ना सीखा । गीता प्रेस हमारे बचपन से गहरे से वाबस्ता है! गीता प्रेस का निर्माण सनातन धर्म को बचाने के उद्देश्य से किया गया था। गीता प्रेस नहीं होती तो हिन्दी पट्टी के लाखों अभावग्रस्त बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाते।

हिंदी और अंग्रेजी के कथित कला समीक्षकों को अपनी आंखों पर चढ़ा आधुनिकता का चश्मा उतार कर कभी भारतीय पारंपरिक कलाकृतियों को देखने गीता प्रेस गोरखपुर जाना चाहिए । वे हतप्रभ रह जायेंगे। मेरा मानना है कि दुनिया से जब आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता का खुमार उतरेगा तो गीता प्रेस की यह चित्रशाला दुनिया की सबसे महंगी आर्ट गैलरी होगी। इस चित्रशाला में जयपुर के किसी अज्ञात कलाकार की एक पेंटिंग है– शिवजी की बरात। अपूर्व और क्लासिक । मैं केवल यही चित्र जीवन भर देखता रह सकता हूं।

हिन्दी के कुछ वामपंथी आलोचकों, पत्रकारों और जातीय बुद्धिजीवियों के मन में गीता प्रेस के प्रति जैसी नफरत भरी हुई है, उससे लगता है कि उनके पास यदि सत्ता होती तो वे गीता प्रेस पर कभी का बुलडोजर चलवा देते । हमारा मानना है कि यदि गीता प्रेस जैसा संस्थान/छापाखाना जर्मनी जैसे किसी उन्नत देश में होता तो उसे अब तक राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया जाता। यह दुनिया का संभवत: सबसे बड़ा प्रेस है जिसने अब तक कोई सौ करोड़ किताबें प्रकाशित की होंगी। ज्ञान का ऐसा प्रसार अभूतपूर्व है। गीता प्रेस के लेखकों में गांधी, रविंद्र, प्रेमचंद और निराला तक रहे हैं। करपात्री महाराज की किताब मार्क्सवाद और रामराज्य भी गीता प्रेस से छपी है। गांधी के सुझाव पर ही कल्याण आज तक विज्ञापन नहीं लेता न किताब की समीक्षा प्रकाशित करता । महाभारत गीता प्रेस का सर्वाधिक प्रामाणिक है यह विष्णु खरे का मानना था। विष्णु खरे भी गीता प्रेस के घोर प्रशंसक थे । रामायण, रामचरित मानस और गीता सर्वाधिक गीता प्रेस की ही पढ़ी जाती है । गीता प्रेस ने न जाने कितने खोए हुए ग्रंथों का कल्याण किया ।

मुझे गीता प्रेस की एक बाल पोथी की एक कहानी कभी नहीं भूलती । एक स्वतंत्रता सेनानी डाकू और उसका मुस्लिम दोस्त अंग्रेजों की पुलिस से बचते हुए किसी मंदिर में पनाह लेते हैं और भूखे प्यासे हैं । तभी एक वृद्ध स्त्री जल का लोटा और प्रसाद की कटोरी लेकर भगवान को अर्पित करने मंदिर जाती है तो देखती है कि कोई मनुष्य भूखा प्यासा मंदिर में छुपा हुआ है तो वह अपना प्रसाद और जल का लोटा उसे समर्पित कर देती है । तभी गोलियां चलती हैं और अपने साथी को बचाने के लिए मुस्लिम दोस्त खुद सीने पर गोली खाकर मर जाता है । ऐसी प्रेरणास्पद कहानियां भी गीता प्रेस ने छापी हैं।

गीता प्रेस एक असंभव स्वप्न था जो साकार हुआ। सौ बरस से अधिक हो गए। गीता प्रेस हमारी राष्ट्रीय धरोहर है। विश्व का एक अजूबा । प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार भारत में नहीं हुआ लेकिन उसका ऐसा उपयोग किसी देश में नहीं हुआ । इसे इसी तरह देखना चाहिए, तभी आपके ज्ञानचक्षु खुलेंगे। इन सौ बरसों में गीता प्रेस ने कोई सौ करोड़ किताबों का प्रकाशन किया और उन्हें देश-विदेश के सुदूर गांवों/कस्बों/शहरों तक पहुंचाया । यह प्रकाशन की दुनिया में एक रिकॉर्ड है। इन सौ करोड़ किताबों में से पचास करोड़ प्रतियां (सभी तरह के संस्करण मिलाकर) केवल रामचरित मानस, गीता और महाभारत की प्रकाशित की।

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