मनोरंजन का बाजार, संस्कृति पर प्रहार

 मनोरंजन का बाजार, संस्कृति पर प्रहार

आजकल देश में मनोरंजन का बाजार भारतीय संस्कृति पर तगड़ा प्रहार कर रहा है। धारावाहिकों और मनोरंजन शोज में द्विअर्थी-भद्दे संवाद और दृश्य खुल्लम-खुल्ला सुनाए और दिखाए जा रहे हैं। सिनेमा के परदे पर शीला-मुन्नी जैसे गानों की भरमार है। युवा रास्ते में आती-जाती लड़कियों पर इन गानों के माध्यम से फब्तियां कसते हैं। फिल्म और टेलीविजन ऐसी चीजों की जानकारी देने लगते हैं जिन्हें बच्चे सही अर्थों में जानने के बजाय गलत तरीके से अपनाने लगते हैं। इसी का परिणाम जघन्य यौन अपराध के रूप में बार-बार प्रकट हो रहा है। अश्लीलता परोसे जाने की इस प्रवृत्ति के साथ फूहड़ विज्ञापनों की भरमार ने सुसभ्य समाज की चिंता बढ़ा दी है। इनमें सामान्यतः नारी की फूहड़ छवि प्रस्तुत की जा रही है। इसका विरोध हमेशा शून्य रहा है। तभी तो यह सब धड़ल्ले से चल रहा है। यदि समय रहते इन अश्लील विज्ञापनों, पोस्टरों, पत्रिकाओं व फिल्मी दृश्यों पर लगाम कसने के प्रयास की किसी ने पहल नहीं की तो आने वाले कुछ वर्षों में यह स्थिति और भी असहज हो जाएगी। वासना के विस्फोट की यह चिंगारी भारतीय संस्कृति को तार-तार कर देगी।

मनोरंजन के नाम पर फिल्मों में परोसी जा रही अश्लीलता समाज को कहां ले जाएगी, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। दिल्ली में कुछ समय पहले एक छात्रा के साथ हुई गैंगरेप की घटना इसकी सबसे भयंकर परिणति कही जा सकती है। इस घटना पर समाजशास्त्री डॉ. विज्ञा तिवारी का कहना है कि आजकल फिल्मों और टेलीविजन का किशोरों और युवाओं पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। जहां पहले फिल्में सामाजिक और नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाती थीं, आज वह अश्लीलता परोस रही हैं। अफसोस तो इस बात का है कि यह सब कुछ हर किसी के जेहन में भी है मगर इसके विरोध में अपनी आवाज मुखर करने वाला कोई नहीं है। हर कोई जानता है कि ऐसे दृश्यों और संवादों से बच्चों, युवाओं व बुजुर्गों के मन-मस्तिष्क पर गलत प्रभाव पड़ता है।

हालात इतने विस्फोटक हैं कि किशोरवय की दहलीज पर पांव रखते ही लड़कियां बहक जाती हैं। फूहड़ मेकअप, बदन दिखाऊ पोशाक, लड़कों से दोस्ती इनकी पहचान बन जाती है। सड़कों, स्कूलों और दीगर स्थानों से शुरू यह दोस्ती बेडरूम में जाकर खत्म होती है। स्थिति विस्फोटक होने पर हाथ मलने के सिवा कुछ बाकी नहीं रहता। हद तो यह है कि ऐसे बच्चों के माता-पिता को कोई आपत्ति नहीं होती।

ऐसी सोच रखने वाली नई पीढ़ी व उनके बदलते अभिभावक मॉर्डर्न जमाने की बात कहकर घटिया संस्कृति के अंधेरे में लुप्त होते जा रहे हैं। इसी मनोवृत्ति का ही नतीजा है कि आज देश में चारों तरफ यौन अपराध बढ़ रहे हैं। हद तो यह है कि खूनी रिश्तों की आंखों में भी वहशत समाने लगी है। अब तो लोग परिचित परिवारों की लड़कियों तक को हवस की नजरों से देखने लगे हैं। पिछले दिनों आफताब नामक युवक ने अपनी प्रेमिका श्रद्धा की हत्या कर उसके 35 टुकड़े कर दिए। खुलासा होने पर खूब हंगामा बरपा। समाज के पहरेदारों ने शुचिता की दुहाई दी। नेताओं ने कठोर कानून बनाने के वादे किए। गुजरते दिनों के साथ सब लोग घटना को भूल गए।

भारत में सिनेमा को एक समय आदर्श संस्कारों एवं प्रेरणा का मुख्य स्रोत माना जाता था। रामायण, महाभारत जैसे धारावाहिक व राजा हरिश्चंद्र, संतोषी माता जैसी फिल्में देखने के लिए लोग बेताब रहते थे। रामायण और महाभारत के प्रसारण समय पर तो सड़कों पर कर्फ्यू जैसा नजारा होता था। अब तो सिनेमा सारी हदें पार कर चुका है। फिल्मों के नाम और शहर के चौराहों पर लगे पोस्टर अश्लीलता की सीमाएं पार कर रहे हैं । फिल्में दर्शकों को अपनी आदर्शवादिता की बजाए बेशर्मी से आकर्षित कर रही है। अश्लील दृश्य एवं नामों वाली फिल्मों को हिट फिल्मों का दर्जा मिल जाता है। आज माता-पिता के लिए बहुत मुश्किल हो गया है कि वो किस तरह अपने बच्चों में बढ़ती हुई इस महामारी जैसी मानसिकता को रोकें। उनमें संस्कारों का निर्माण करें । दुर्भाग्य से सरकार एवं फिल्म सेंसर बोर्ड भी आंख बंद किए हुए हैं।

Digiqole Ad

Related Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *