बुलंदशहर हाईवे कांड: नौ साल का इंतजार, उम्रकैद की सजा और एक बेटी के कभी न खत्म होने वाले जख्म
बुलंदशहर/बरेली: न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी होती है, लेकिन उस न्याय तक पहुंचने का रास्ता कितना पथरीला और कांटों भरा हो सकता है, इसकी जीती-जागती मिसाल बुलंदशहर हाईवे कांड की पीड़िता है। 28 जुलाई 2016 की वह काली रात, जिसने एक हंसते-खेलते परिवार की दुनिया उजाड़ दी थी, उसके दोषियों को नौ साल, चार महीने और 25 दिन बाद आखिरकार उनके किए की सजा मिल गई है। बुलंदशहर की विशेष पॉक्सो अदालत ने पांच दरिंदों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है, यह आदेश देते हुए कि वे अपनी अंतिम सांस तक सलाखों के पीछे ही रहेंगे। लेकिन क्या जेल की ये दीवारें उस पीड़िता के जेहन में दर्ज उन ‘राक्षसी चेहरों’ को मिटा पाएंगी? यह सवाल आज भी समाज और व्यवस्था के सामने खड़ा है।
उस काली रात का खौफनाक मंजर
वह जुलाई की एक उमस भरी रात थी। गाजियाबाद में रहने वाला एक परिवार अपनी कार से शाहजहांपुर स्थित अपने पैतृक गांव में एक तेरहवीं संस्कार में शामिल होने जा रहा था। कार में 14 साल की एक किशोरी, उसकी मां, पिता, ताऊ, ताई और चचेरा भाई सवार थे। रात के करीब एक बज रहे थे और कार बुलंदशहर के नेशनल हाईवे-91 पर दोस्तपुर फ्लाईओवर के पास पहुंची ही थी कि अचानक एक तेज आवाज हुई। परिवार को लगा कि गाड़ी किसी चीज से टकरा गई है या कोई तकनीकी खराबी आ गई है। जैसे ही गाड़ी रुकी, सड़क के किनारे झाड़ियों में छिपे सात-आठ हथियारबंद दरिंदे बाहर निकल आए।
पीड़िता के पिता आज भी उस बेबसी को याद कर कांप उठते हैं। उन्होंने बताया कि बंदूक की नोक पर पूरे परिवार को बंधक बना लिया गया। बदमाशों ने उन्हें सड़क के दूसरी तरफ एक खेत में खींच लिया, जहां पुरुषों के हाथ-पैर बांध दिए गए। इसके बाद जो हुआ, उसने इंसानियत को शर्मसार कर दिया। उन दरिंदों ने पिता और ताऊ की आंखों के सामने ही 14 साल की मासूम बेटी और उसकी मां के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया। वह छोटी सी बच्ची गिड़गिड़ाती रही, मदद की गुहार लगाती रही, लेकिन उन राक्षसों का दिल नहीं पसीजा। वारदात को अंजाम देने के बाद वे लूटपाट कर वहां से फरार हो गए।
न्याय के लिए एक दशक लंबा संघर्ष
इस मामले की गंभीरता को देखते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर जांच सीबीआई (CBI) को सौंपी गई थी। सीबीआई ने गहन पड़ताल के बाद बावरिया गिरोह के सदस्यों को दबोचा। जांच में सामने आया कि यह गिरोह हाईवे पर इसी तरह की वारदातों को अंजाम देने के लिए कुख्यात था। अप्रैल 2017 और जुलाई 2018 में दो चरणों में आरोपपत्र दाखिल किए गए। इस लंबी कानूनी लड़ाई के दौरान एक आरोपी सलीम की मौत हो गई, जबकि बाकी पांच—जुबैर, साजिद, धर्मवीर, नरेश और सुनील—के खिलाफ मुकदमा चलता रहा।
सोमवार को जब विशेष न्यायाधीश ओपी वर्मा ने अपना फैसला सुनाया, तो अदालत कक्ष में सन्नाटा पसर गया। कोर्ट ने इसे ‘जघन्यतम’ श्रेणी का अपराध मानते हुए सभी पांचों दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई और उन पर कुल 1.81 लाख रुपये का अर्थदंड भी लगाया। अदालत ने स्पष्ट किया कि दोषियों के प्रति किसी भी तरह की नरमी नहीं बरती जा सकती और उन्हें समाज से दूर जेल की कालकोठरी में ही अपनी पूरी जिंदगी काटनी होगी।
पीड़िता की खामोशी और आंखों में जमे वो चेहरे
सजा का ऐलान होने के बाद वर्तमान में बरेली में रह रही पीड़िता ने पहली बार अपनी चुप्पी तोड़ी। नौ साल बीत जाने के बाद भी उसकी आवाज में वह कंपन और डर साफ महसूस किया जा सकता था। पीड़िता ने बताया कि समय भले ही बीत गया हो, लेकिन वह रात कभी खत्म नहीं होती। जब भी वह अपनी आंखें बंद करती है, उसे वही अंधेरा, वही चीखें और वही राक्षसी चेहरे नजर आते हैं। उसने कहा, “उन लोगों ने सिर्फ मेरे शरीर को नहीं नोचा, बल्कि मेरा भविष्य और मेरी खुशियां भी तबाह कर दीं। वे इंसान नहीं, साक्षात राक्षस थे।”
आज वह बेटी बीए ऑनर्स कर चुकी है और एलएलबी की तैयारी कर रही है। उसके भीतर का दर्द अब एक संकल्प में बदल चुका है। वह कहती है कि वह अब खुद एक न्यायिक अधिकारी (जज) बनना चाहती है, ताकि वह खुद अपनी कलम से ऐसे अपराधियों को सजा दे सके और यह सुनिश्चित कर सके कि किसी और बेटी को कभी ऐसी खौफनाक रात का सामना न करना पड़े।
सामाजिक बहिष्कार और दर-दर भटकता परिवार
न्याय की यह जीत इतनी आसान नहीं थी। इस परिवार ने पिछले नौ वर्षों में जो सामाजिक प्रताड़ना झेली है, वह किसी दूसरे सदमे से कम नहीं है। पीड़िता के पिता ने रुंधे गले से बताया कि उन्हें पिछले नौ सालों में छह बार अपना घर बदलना पड़ा। जैसे ही आसपास के लोगों को उनके साथ हुई उस घटना की भनक लगती, लोगों का व्यवहार बदल जाता था। सहानुभूति दिखाने के बजाय लोग उन्हें नफरत भरी नजरों से देखते थे, फब्तियां कसते थे और कानाफूसी शुरू हो जाती थी।
बदनामी के डर और सुरक्षा की चिंता के कारण उन्हें बार-बार शहर छोड़ना पड़ा। गाजियाबाद से बरेली तक के इस सफर में परिवार आर्थिक रूप से भी पूरी तरह टूट गया। जो पिता कभी तीन टैक्सियों के मालिक थे और एक खुशहाल जीवन जी रहे थे, आज वह 12 से 15 हजार की मामूली नौकरी पर दूसरों की गाड़ी चलाने को मजबूर हैं। वह रात की शिफ्ट में काम करते हैं ताकि दिन में अपनी बेटी की पढ़ाई और कानूनी लड़ाई पर ध्यान दे सकें।
नियति का क्रूर खेल: न्याय देखने से पहले ताऊ का निधन
इस पूरे घटनाक्रम में एक और दुखद पहलू पीड़िता के ताऊ की मौत है। वह उस रात के सबसे बड़े चश्मदीद थे और उन्होंने अपनी आंखों से वह सारा तांडव देखा था। वह उस सदमे से कभी उबर नहीं पाए। वह दिन-रात बस यही चाहते थे कि उन दरिंदों को उनके किए की सजा मिले। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। फैसले से ठीक एक माह पहले, जब वे दवा लेने जा रहे थे, मुरादाबाद में ट्रेन के भीतर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी मृत्यु हो गई। परिवार को इस बात का मलाल है कि वे उन दोषियों को सलाखों के पीछे जाते हुए नहीं देख सके।
व्यवस्था पर सवाल और पुलिस की लापरवाही
यह मामला केवल एक अपराध की कहानी नहीं है, बल्कि यह हमारी पुलिस व्यवस्था की खामियों को भी उजागर करता है। 2016 में जब यह वारदात हुई थी, तो तत्कालीन सरकार और पुलिस प्रशासन की भारी किरकिरी हुई थी। घटना में घोर लापरवाही बरतने के आरोप में तत्कालीन एसएसपी समेत 17 पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की गाज गिरी थी। नेशनल हाईवे जैसे सुरक्षित माने जाने वाले रास्तों पर इस तरह की वारदात ने उस समय पूरे देश में आक्रोश पैदा कर दिया था।
सीबीआई की जांच ने अंततः पुलिस की उन थ्योरी को भी खारिज किया जो शुरुआत में मामले को भटकाने की कोशिश कर रही थीं। बावरिया गिरोह की संलिप्तता और उनके काम करने के क्रूर तरीके ने सुरक्षा एजेंसियों के सामने बड़ी चुनौती पेश की थी, लेकिन अंततः वैज्ञानिक साक्ष्यों और गवाहों के बयानों ने दोषियों को उनके अंजाम तक पहुंचा ही दिया।
एक नई शुरुआत की उम्मीद
हालांकि दोषियों को आजीवन कारावास की सजा मिल गई है, लेकिन पीड़िता और उसके परिवार के लिए सामान्य जीवन की ओर लौटना अभी भी एक बड़ी चुनौती है। अदालत ने अर्थदंड की आधी राशि पीड़ित मां-बेटी को देने का निर्देश दिया है, जो उनके पुनर्वास में थोड़ी मदद कर सकती है। लेकिन जो घाव आत्मा पर लगे हैं, उन्हें भरने के लिए केवल कानूनी सजा काफी नहीं है।
पीड़िता का संघर्ष और उसकी एलएलबी की पढ़ाई इस बात का प्रतीक है कि वह टूटी नहीं है। वह अब उस व्यवस्था का हिस्सा बनकर न्याय की मशाल को आगे ले जाना चाहती है जिसने उसे न्याय दिलाने में नौ साल लगा दिए। यह फैसला न केवल उन पांच दरिंदों के लिए सजा है, बल्कि समाज के लिए भी एक कड़ा संदेश है कि कानून के हाथ लंबे होते हैं और देर से ही सही, न्याय होकर रहता है।