• October 22, 2025

वीरव्रत के साधक वीरेश्वर द्विवेदी

 वीरव्रत के साधक वीरेश्वर द्विवेदी

साहित्य साधना और सामाजिक कार्य दोनों अलग क्षेत्र हैं। सामाजिक संगठन में कार्य करते समय नित्य कार्यक्रमों की योजना और निरन्तर प्रवास करना होता है जबकि साहित्य साधना एकान्त चाहती है। इसलिए बहुत कम ही लोग होते हैं जिनके अंदर अनेक प्रतिभाएं रहती हैं। ऐसे ही एक दिव्य विभूति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक वीरव्रत के साधक वीरेश्वर द्विवेदी थे। वह कुशल वक्ता, विद्वान, त्यागी, तपस्वी, मितभाषी होने के साथ-साथ अच्छे कवि, लेखक, पत्रकार और संपादक थे। प्रयागराज की धरती से प्रचारक जीवन प्रारम्भ करने वाले साहित्यकार, विचारक, लेखक, पत्रकार व संपादक वीरेश्वर द्विवेदी का लक्ष्मणनगरी में चार सितम्बर को निधन हो गया।

उनका जन्म 17 अगस्त, 1945 को कानपुर देहात के गांव भाल (राजपुर) में हुआ था। कानपुर संघ कार्यालय पर रहकर पढ़ाई की। उरई डीएवी कॉलेज से परास्नातक की शिक्षा ग्रहण की । डीएवी कॉलेज उरई के छात्रसंघ अध्यक्ष भी रहे। बाद में दैनिक जागरण से पत्रकारिता की शुरुआत की। अशोक सिंहल से वह बहुत प्रभावित थे। अशोक सिंघल की प्रेरणा से ही सन् 1972 में दैनिक जागरण से पत्रकारिता की नौकरी छोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बने थे। सबसे पहले प्रयाग महानगर के प्रचारक के नाते उनकी घोषणा हुई। इसके बाद अखिल विद्यार्थी परिषद में उन्हें भेजा गया। इस समय जो पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र है उस समय प्रान्त था तो प्रान्त संगठन मंत्री के नाते उनकी योजना हुई। इसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क्षेत्र बौद्धिक प्रमुख रहे। संघ शिक्षा वर्गों में प्राय: बौद्धिक विभाग ही उनके जिम्मे रहता था।

संघ में जब प्रचार विभाग शुरू हुआ तो उन्हें क्षेत्र प्रचार प्रमुख बनाया गया और स्वगीर्य अधीश जी को सह क्षेत्र प्रचार प्रमुख बनाया गया था। राष्ट्रभाव के जागरण के लिए भाऊराव देवरस ने राष्ट्रधर्म के रूप में जो बीजारोपण किया था, उस राष्ट्रधर्म पत्रिका के वर्ष 1984 से लेकर 1995 तक सम्पादक रहे।

राष्ट्रधर्म में आने के बाद भाऊराव देवरस ने उनसे कहा देखो वीरेश्वर पिस्तौल और बम को थोड़ा कम करो और दैनिक जागरण के अपने अनुभव के आधार पर राष्ट्रधर्म को पारिवारिक पत्रिका बनाओ। वह कार्य में जुट गए। राष्ट्रधर्म के माध्यम से अनेक नयी प्रतिभाओं को उभरने का अवसर उनके समय में मिला। संपादक का दायित्व संभालने के बाद राष्ट्रधर्म की कुछ प्रतियां जब वीरेश्वर जी ने अटल जी को दिखायीं तो अटल जी ने टिप्पणी की कि ”अगर भोजन स्वादिष्ट हो, किन्तु थाली साफ न हो, तो पूरा आनन्द नहीं आता। संपादक जी। जरा इसकी साज-सज्जा पर ध्यान दीजिए। इसके बाद राष्ट्रधर्म के कवर पेज को आकर्षक बनाया गया। उनके समय में राष्ट्रधर्म के अनेक विशेषांक देशभर में लोकप्रिय हुए। उनमें वैचारिक स्पष्टता थी।

राष्ट्रधर्म के अगस्त 1985 के अंक में वीरेश्वर द्विवेदी लिखते हैं कि सहिष्णुता का अर्थ होता है कि किसी वस्तु विचार या व्यक्ति के लिए ह्रदय में स्थान तो नहीं है फिर भी उसे सहन करना पड़ रहा है। पर भारतीय संस्कृति ने सहिष्णुता से भी आगे जाकर समादर का व्यवहार किया है। समादर के भाव और स्पष्ट करते हुए वह लिखते हैं कि भारतीय संस्कृति ने जग के ठुकराये लोगों के लिए अपने द्वार किस तरह खुले रखे हैं, इसके उदाहरण यहूदी और पारसी समाज हैं।

राष्ट्रधर्म ने अप्रैल 1986 में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति विशेषांक निकाला था। राम जन्मभूमि आन्दोलन का वह शैशवकाल था फिर भी भविष्यदृष्टा वीरेश्वर द्विवेदी ने अपने संपादकीय में लिखा था ‘श्रीराम जन्मभूमि तो हिन्दुओं को मिलकर रहेगी ही। 11 वर्ष के बाद 1995 में स्वेच्छा से निवृत्ति के बाद दो साल के अंदर ही तत्कालीन सह सरकार्यवाह सुरेशराव केतकर ने वीरेश्वर द्विवेदी से कहा कि संघ की केन्द्रीय टोली ने सरसंघचालक रज्जू भैया के साथ बैठकर तय किया है आपको पुन: राष्ट्रधर्म संभालना होगा। वीरेश्वर द्विवेदी ने कहा कि अनुशासन की बात तो अलग है लेकिन मैं इसके लिए अधिकतम प्रयास कर चुका हूं। रही बात सुधार की तो मैं एक सक्षम नाम सुझाता हूं। उनके कहने पर आनन्द मिश्र अभय को राष्ट्रधर्म का संपादक बनाया गया।

श्रीराम मंदिर आंदोलन में भी वीरेश्वर द्विवेदी की अहम भूमिका रही। देशभर के पत्रकारों से उनकी घनिष्ठता थी। वीरेश्वर द्विवेदी ने अवध प्रान्त के मुखपत्र पथ संकेत और विश्व हिन्दू परिषद की पत्रिका हिन्दू विश्व का भी संपादन किया। उन्होंने 30 पुस्तकें लिखी हैं। लखनऊ के लोकहित प्रकाशन से भी उनकी पांच पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय मंत्री और प्रवक्ता भी रहे। राजनीति की भी उन्हें अच्छी समझ थी। अटल जी जब भी लखनऊ से चुनाव लड़ते तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से वीरेश्वर द्विवेदी को ही लगाया जाता। बहुत कम ही लोग हैं जिन्हें अशोक सिंहल और अटल जी दोनों को विश्वास प्राप्त था। उनमें वीरेश्वर जी भी थे।

संस्कृति व संस्कारों के प्रति वह हमेशा मार्गदर्शन करते थे। लखनऊ विश्व संवाद केन्द्र पर जब उनका केन्द्र घोषित हुआ तो महानगर में परिवार प्रबोधन गतिविधि को गति देने लगे। उनके आग्रह पर मैंने इंदिरानगर में संपन्न परिवार प्रबोधन की गोष्ठी को कवर किया। दुर्योग से यही उनका अंतिम सार्वजनिक कार्यक्रम रहा। इस कार्यक्रम में मातृशक्ति की अच्छी संख्या रही। उस गोष्ठी को संबोधित करते हुए वीरेश्वर द्विवेदी ने कहा था कि प्राचीन संस्कृति और भारतीय जीवन मूल्यों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने में मातृ शक्ति का अहम योगदान है। उन्होंने कहा कि अपने मान बिन्दुओं के प्रति श्रद्धा और अपनी परम्पराओं का पालन अगर हम करेंगे तो हमारे बच्चे भी सीखेंगे। उन्होंने अपील की थी कि बच्चों के जन्मदिन पर टू यू-टू यू के स्थान पर शुभ जन्मदिनं तुभ्यं बोलना चाहिए।

अस्पताल में भर्ती होने से पहले नित्य की शाखा उनकी कभी नहीं छूटी। उनके चेहरे पर हमेशा माधुर्य झलकता था। कोई भी कार्यकर्ता उनसे कोई समस्या बताया उसका निराकरण कराने का प्रयास करते थे। प्रचारक जीवन के दौरान उन्होंने पूर्व उप मुख्यमंत्री डॉ.दिनेश शर्मा और राज्यसभा सदस्य सुधांशु त्रिवेदी जैसे अनेक कार्यकर्ताओं को गढ़ने का काम किया। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह को आगे बढ़ाने का काम किया। यही कारण रहा कि कोविन्द बराबर उनका हालचाल लेते रहते थे। उन्हें जब बीमारी का पता चला तो वीरेश्वर जी को देखने रामनाथ कोविन्द लखनऊ आये।

वह हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी के जानकार थे। पढ़ने-लिखने का उनका शौक था। अंतिम समय तक उन्होंने लिखना पढ़ना नहीं छोड़ा। अगस्त 2023 के अंक में वीरेश्वर द्विवेदी द्वारा लिखित संघ शताब्दी वर्ष पर एक भावपूर्ण कविता प्रकाशित हुई है।

केशव की है मूल कल्पना मंत्र बीज था बोया।

माधव ने की वृहत योजना, बरगद सा फैलाया।

मधुकर की समता, समरसता, फूल रही फलवारी।

रज्जू भैया स्नेह रज्जु से, बांधे दे -दे तारी।

कुप्पहल्ली को बुद्धि सुदर्शन,पड़ता सब पर भारी।

मोहन की मोहकता सम्मुख, झूम रहे नर नारी।

वीरेश्वर द्विवेदी ने अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दू समाज के उत्कर्ष में लगाया। संघ, समाज कार्य व पत्रकारिता में उनका योगदान चिरस्थायी रहेगा।

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Rama Niwash Pandey

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