देश क्या चाहे ?
अंग्रेज़ी उपनिवेश के अंधे युग से मुक्ति के बाद भारत ने एक आधुनिक लोकतंत्र के रूप में अब तक तीन चौथाई सदी की यात्रा पूरी कर ली है। इस बीच यहाँ की राजनैतिक प्रतिबद्धताओँ में उतार-चढ़ाव के कई दौर आए, कई आंतरिक और बाह्य आपदाएँ भी आईं फिर भी संसदीय लोकतंत्र की रक्षा करने में देश सफल रहा। इस बीच नेतृत्व में भागीदारी भी इस अर्थ में विकेंद्रित हुई कि वह अभिजात वर्ग के एकल वर्चस्व से बाहर आई। कहा जा सकता है कि देश की सामाजिक चेतना का विस्तार हुआ। कुल मिला कर पराधीन से स्वाधीनता की राह पर चलना एक विदेशी जकड़न से मुक्त कराने वाला अनुभव था पर ‘पूर्ण स्वराज’ की सोच एक आज तक अधूरी प्रोजेक्ट ही रही। उसने देश के नागरिकों को अनिवार्य दायित्व की एक अनदेखी डोर से भी बांधा था । स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता न हो कर समर्थ होने और आत्म-निर्भर होने की दिशा में कदम बढ़ाना है।इसलिए जब अमृत-काल की अवधि में एक आत्मनिर्भर और सशक्त भारत के निर्माण के लिए संकल्प लिया गया तो सबने हामी भरी । इस काम में पूरे भारतीय समाज का जुड़ाव चाहिए। इसके लिए गणतंत्र की परिधि में संसदीय प्रणाली के अनुसार होना है । इस दृष्टि से लोक सभा का ताज़ा चुनाव एक ख़ास अवसर है।
चुनाव के लिए प्रचार का काम ज़ोरों पर है। वोटर को फुसलाने और लुभाने के लिए क़िस्म-क़िस्म की तरकीबें आज़माई जा रही हैं ताकि जन-समर्थन और वोट इकट्ठा किया जा सके । जनसभा, रोड शो, रैली और रेला के बड़े और मेगा शो साथ-साथ अब घर-घर मतदाताओं से मिल कर अपने पार्टी के पक्ष में ज़मीनी स्तर पर प्रचार करने की क़वायद रफ़्तार पकड़ने लगी है। मीडिया ख़ास तौर पर टी वी चैनलों पर होने वाले वाद-विवाद (जिन्हें दंगल! हल्लाबोल! शंखनाद! के रूप में प्रचारित कर लोकप्रिय बनाया जाता है) गौर तलब हेन। इनमें नेताओं के अंत:करण की आवाज के साथ उनकी दृष्टि (और पार्टी) में बदलाव की आहट, दल-बदल की खबरें, चुनावी टिकट की अनोखी बंदरबाँट और विभिन्न दलों के झूठे-सच्चे आपसी आरोप-प्रत्यारोप के दावे विचार के विषय होते हैं। राजनैतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं के (अनोखे और कभी-कभी हास्यास्पद किस्म के) वक्तव्य और तीखे वाग्युद्ध तथा राजनैतिक विश्लेषकों द्वारा की जाने वाली रोचक भविष्यवाचक टिप्पणियाँ दर्शकों की उत्सुकता बढ़ाती हैं। शायद उनकी राय बनाने में मददगार भी होन हालाँकि विभिन्न पार्टियों के बेतुके और परस्पर विरोधी दावे कई बार दिग्भ्रमित भी करते हैं। साथ ही सरकारों और नेताओं के दोषों, कमियों और ग़लतियों की फ़ेहरिस्त भी घटा-बढ़ा कर पेश की जाती है। नेताओं के पुराने और यादगार अच्छे-बुरे, प्रासंगिक और ग़ैर-प्रासंगिक (बेतुके!) कारनामों की भी मदद ली जाती है। उनके भूत उतारे नहीं उतरते और वर्तमान की लड़ाई के लिए इतिहास अस्त्र-शस्त्र मुहैया करता रहता है। इस बीच राजनैतिक चाल भी ठहरी नहीं रहती। गोया निरंतर इतिहास रचा जाता है। राजनीतिक परिदृश्य कुछ ऐसा है कि मोदी की उपस्थिति, छवि और संवाद-पटुता ने उनको राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया है। उनकी गतिशीलता ने भारत की छवि को भरोसेमंद बनाया है। उनकी रीति नीति में समावेश की प्रवृत्ति भी झलकती है। जनपक्षीयता, जन-सुविधाओं के व्यापकीकरण जैसे- डिजीटलीकरण, संसाधनों और इंफ़्रास्ट्रक्चर का विस्तार, आर्थिक मोर्चे पर मजबूती, प्रतिरक्षा तंत्र का स्वदेशीकरण, अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में देश के बढ़ते कदम आश्वस्ति का संकेत देते हैं। ‘मोदी की गारंटी’ असरदार हो रही है। सामाजिक और राजनीतिक समीकरण साधने की उनकी कोशिश भी रंग ला रही है।
अब सभी दलों ने प्रत्याशियों के चयन के साथ टिकटों का एलान कर अपनी रीति नीति को ज़ाहिर किया है । पार्टी हाई कमान राज-काज में भागीदारी के लिए योग्यता या अनुभव की जगह अपने विश्वासपात्रों को तलाश रहा है जो “लायल” बना रहे। जनता को अपने विश्वास में लेने के लिए “न्याय” और “ गारंटी” पर खूब ज़ोर दिया जा रहा है । युवा, स्त्री, मज़दूर, किसान, गरीब आदि के लिए ख़ैरात बाँटने की घोषणा की भरमार हो रही है। वादों के ज़रिए जन-कल्याण का नुस्ख़ा पेश करते हुए बहुत से प्रस्ताव आ रहे हैं । इनमें आरक्षण की सीमा बढ़ाने, नौकरी के अवसर देने, क़र्ज़ देने और माफ़ करने, विभिन्न वर्गों के लिए अनुग्रह राशि देने और जातिगत जनगणना करा कर सबको संतुष्ट करने की कोशिश जारी है। परिवार-प्रथम की युक्ति संकुचित और विकलांग राजनीतिक सोच को ही बता रही है। जातिवाद और तुष्टीकरण की खुली नीति से उसे पुष्ट भी किया जा रहा है । भ्रष्टाचार में संलिप्तता के मामले अनेक नेताओं के गले की फाँस हो रहे हैं। दलों की साख घट रही है। आइ एन डी आई ए जैसा मोर्चा संकल्पहीन नाटक हो रहा है। भारत के सबसे पुराने दल कांग्रेस अस्तित्व के लिए बुरी तरह संघर्षरत है। उसके लिए गहरे आत्म-मंथन की ज़रूरत है।
आज जाति, क्षेत्र और धर्म जैसे समाज-विभाजक आधारों का आसरा लेकर प्रलोभनों की झड़ी लग रही है। सुरा, सुविधा, बाहु बल और धन-बल से वोट की सौदेबाज़ी खुल कर सामने आ रही है । नेतागण अक़्सर सत्ता सँभालने और उसका सुख भोगने में लग जाते हैं । आम जन और उनके नेताओं के बीच दूरी बढ़ती जा रही है । महँगाई, बेरोज़गारी और सरकारी काम-काज की धीमी गति, क़ानूनी उलझनों और उबाने वाली नौकरशाही पूरी व्यवस्था को प्रश्नांकित करती दिखती है। आम जन उद्धार पाने के लिए बेचैन है । नारे और वायदों से उकता चुकी जनता को ज़मीनी हक़ीक़त में बदलाव की आगामी चुनाव की कसौटी रहेगी।
जनता के जन-घोषणा पत्र में किसी एक ख़ास की संतुष्टि नहीं बल्कि सबका कल्याण ही सबसे पहले है। शिक्षा, स्वास्थ्य, क़ानून की संस्थाओं और उनकी कार्यविधि का पुनर्जीवन, भ्रष्टाचार से मुक्ति, और सदाचार का पोषण हुए बिना आत्मनिर्भर भारत का निर्माण सम्भव नहीं है। वंचितों की मौलिक सामर्थ्य को बढ़ाना न कि उनको परोपजीवी बनाए रखना, पारदर्शिता के साथ सुशासन की व्यवस्था ले आना , लचर और हास्यास्पद रूप से तकनीकी होती जा रही न्याय-प्रणाली को सुधारना अहं है। इसी तरह शिक्षा का महत्व समझ कर उसकी गुणवत्ता को सुनिश्चित किया जाना अपरिहार्य होगा । तभी युवा भारत को सार्थक जीवन का अवसर मिल सकेगा। फ़ौरी प्रलोभन दे कर वोट बटोरने की क़ुप्रथा से कुछ न होगा। भारत एक ऐसे सशक्त भारत का स्वप्न देख रहा है जिसमें ऐसी पारदर्शी व्यवस्था हो जो लोक-कल्याण से प्रतिबद्ध हो और सबकी सहभागिता हो।




