‘परिवार की विरासत’ पर टिकी राजनीति — बिहार विधानसभा में 28% विधायक वंशवादी पृष्ठभूमि से
बिहार की राजनीति में चुनावी हलचल के बीच एक रिपोर्ट ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया है। यह रिपोर्ट बताती है कि राज्य की सत्ता के गलियारों में परिवारवाद कितनी गहराई तक फैला हुआ है। जहां जनता नई सोच और बदलाव की उम्मीद में मतदान करती है, वहीं नेताओं की नई पीढ़ियां अपने परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रही हैं। इस खुलासे ने न केवल राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए हैं बल्कि यह भी दिखाया है कि लोकतंत्र में अब “जनता का प्रतिनिधित्व” कहीं “वंश का प्रतिनिधित्व” न बन जाए। आइए जानते हैं पूरी खबर क्या है।
राजद में परिवारवाद का बोलबाला
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार विधानसभा के निवर्तमान 243 विधायकों में से 70 यानी करीब 29 प्रतिशत विधायक वंशवादी पृष्ठभूमि से हैं। इनमें सबसे आगे है राष्ट्रीय जनता दल (राजद), जिसके 71 विधायकों में से 30 विधायक वंशवादी हैं — यानी 42.25 प्रतिशत। राजद में लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के बेटे तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव जैसे नाम तो पहले से ही राजनीतिक पहचान बना चुके हैं। इनके अलावा, राजद के कम से कम सात ऐसे विधायक हैं जिनके परिवार के सदस्य पहले मंत्री रह चुके हैं। इनमें दीपा मांझी (जीतन राम मांझी की बहू), पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा और हरिहर सिंह के बेटे जैसे नाम शामिल हैं।
यह तस्वीर दिखाती है कि बिहार में राजद के लिए “परिवार की राजनीति” अब एक परंपरा बन चुकी है।
जदयू, भाजपा और कांग्रेस भी पीछे नहीं
राजद भले शीर्ष पर हो, लेकिन परिवारवाद की जड़ें अन्य दलों में भी गहराई तक फैली हैं। जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के 44 विधायकों में से 16 वंशवादी हैं — यानी लगभग 36 प्रतिशत। वहीं भाजपा में यह संख्या राजद-जदयू के संयुक्त आंकड़े से केवल तीन सीटें कम बताई गई है, हालांकि रिपोर्ट में उसका सटीक आंकड़ा साझा नहीं किया गया। कांग्रेस के 19 विधायकों में से चार विधायक वंशवादी हैं। दिलचस्प यह है कि जदयू-भाजपा सरकार के सात मंत्री भी वंशवादी पृष्ठभूमि से हैं — जिनमें विजय कुमार चौधरी, महेश्वर हजारी, शीला कुमारी, सुनील कुमार (जदयू) और नितिन नवीन (भाजपा) के नाम शामिल हैं। इससे साफ है कि बिहार में परिवारवाद किसी एक पार्टी की समस्या नहीं, बल्कि एक साझा राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन चुका है।
तीसरी पीढ़ी तक पहुंची विरासत की राजनीति
रिपोर्ट बताती है कि बिहार की राजनीति अब तीसरी पीढ़ी तक परिवारवाद से प्रभावित हो चुकी है। जदयू मंत्री सुमित कुमार सिंह, जिनके पिता और दादा दोनों विधायक और मंत्री रहे, तीसरी पीढ़ी के नेता हैं। इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री शकुनी चौधरी के बेटे सम्राट चौधरी और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के बेटे संतोष सुमन मांझी भी वंशवादी नेताओं की सूची में हैं। राजद के युसूफ सलाहुद्दीन और जदयू के अशोक चौधरी जैसे नाम भी इसी श्रेणी में आते हैं। यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली राजनीति यह संकेत देती है कि बिहार में नई प्रतिभाओं के लिए रास्ते अभी भी कठिन हैं, और राजनीतिक वारिसों का दबदबा बरकरार है।
योग्यता से ज्यादा विरासत का वर्चस्व
बिहार जैसे राज्य में, जहां सामाजिक न्याय और प्रगतिशील आंदोलनों की मजबूत परंपरा रही है, वहां यह आंकड़ा चिंताजनक है। रिपोर्ट साफ़ करती है कि राजनीति में योग्यता के बजाय पारिवारिक विरासत को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति अब गहराई से जड़ें जमा चुकी है। विश्लेषकों का कहना है कि इस रुझान से युवा और प्रतिभाशाली चेहरों के लिए राजनीति में जगह बनाना मुश्किल हो जाता है। लोकतंत्र के नाम पर राजनीति एक “क्लोज़्ड क्लब” बनती जा रही है, जहां टिकट और पद अब मेहनत से नहीं, बल्कि खानदान से तय होते दिख रहे हैं। बिहार चुनाव 2025 के मद्देनज़र यह सवाल अहम है — क्या जनता इस बार विरासत पर नहीं, बल्कि विजन पर वोट देगी?