जलते जंगल, अमंगल के संकेत
दुनिया भर में जंगलों में लगने वाली आग की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन एक बड़े कारक के रूप में उभर रहा है। इस वर्ष ब्राजील में अमेजन के वर्षा वनों में 75000 आग की घटनाएं हो चुकी हैं। 2013 से यह संख्या दोगुनी है। इससे 30 लाख जीव प्रजातियों पर खतरा मंडरा रहा है। दुनिया की 25 प्रतिशत आक्सीजन की जरूरत इन वर्षा वनों से पूरी होती है। मैक्सिको, ग्रीस, अमेरिका सहित दुनिया के अनेक देश दावाग्नि की चपेट में आ चुके हैं। वैसे तो मनुष्य शुरू से ही जंगलों को आग से साफ करके खेती के लिए जमीनें तैयार करता रहा है, किन्तु अब दुनिया की हवा, पानी, और पर्यावरणीय जरूरतों को पूरा करने के लिए जितने न्यूनतम क्षेत्र में वन होने चाहिए उतने भी नहीं बचे हैं। इसलिए इस घातक प्रक्रिया पर विराम लगाना अति आवश्यक हो गया है।
जंगलों की आग के और भी अनेक नुकसान हैं। आग से फैलने वाला धुआं कार्बनडाई आक्साइड का मुख्य स्रोत होने के कारण ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करके वैश्विक तापमान में वृद्धि करता है। तापमान वृद्धि से आग लगने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इस तरह एक घातक दुश्चक्र चल निकला है। वनाग्नि से असंख्य जीव-जंतु नष्ट हो जाते हैं और जैव विविधता के लिए बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। मिट्टी की ऊपरी परत जल कर खुरखुरी हो जाती है और बारिश में बह कर समुद्र में पहुंच जाती है। वनस्पति का आच्छादन समाप्त हो जाने से भू-जल भरण की प्रक्रिया भी बाधित हो जाती है।
वायु प्रदूषित हो जाने के कारण श्वास संबंधी रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है। हमारे देश में भी वनाग्नि भयंकर समस्या बनती जा रही है। अकेले हिमाचल प्रदेश में ही इस वर्ष 1900 वनाग्नि की घटनाएं हो चुकी हैं। इससे 20,000 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। इसमें से 2729 हेक्टे।प वृक्षारोपण क्षेत्र है। 374 वन बीट संवेदनशील हैं। इससे 6।61 करोड़ रुु।े का नुकसान अनुमानित है। किन्तु यह अनुमान तो वृक्ष की मृत पैदावार की कीमत पर आधारित है। पेड़ की पर्यावरणीय सेवाओं के हिसाब से यदि नुकसान का आकलन करना हो तो यह अरबों रुपये में जाएगा।
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इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए दो तरह से प्रयास करने होंगे। एक तो आग लगने की घटनाएं ही कम होती जाएं ऐसी व्यवस्था करनी होगी। लोगों को जागरूक करना ताकि वे वनों में आग के नुकसान से परिचित हों और इस कार्य का प्रकट विरोध करने के लिए सक्रिय हों। वनों का नुकसान सरकार का नुकसान नहीं है बल्कि पूरे समाज का नुकसान है। आग लगाने वाले शरारती तत्वों को पकड़ने और दंडित करने की व्यवस्था हो।
दूसरा काम है, जब आग लग जाती है तो उस पर काबू पाना। इसके लिए दीर्घकालीन योजना बनाई जानी चाहिए। आग लगे तो कुआं खोदने की प्रवृति से बाहर निकलना होगा। और आग प्रतिरोधक स्थाई योजना बनानी चाहिए। सबसे पहले आग लगने के तत्काल बाद पता लग जाना चाहिए। इसके लिए खोज टावर नेटवर्क, और दूरबीन एवं रेडियो से लैस कर्मी चाहिए जो त्वरित रिपोर्टिंग कर सकें। पुराने समय में लोगों की वनों पर निर्भरता का स्तर बहुत ऊंचा था जिससे आग बुझाने में उनका सहयोग लेना आसन था। लोग हाथ से कठिन परिश्रम के आदी थे और आग बुझाने जैसे कठिन काम को करने की हिम्मत जुटा लेते थे।
आज इन बातों की कमी हो गई है जिससे आधुनिक तकनीकों का प्रयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए। झाड़ियों से पीट कर आग बुझाने की मजबूरी से बाहर निकलना होगा। आधुनिक तकनीकों के बिना आग नियंत्रण के प्रयास करते हुए गत वर्ष भी वनकर्मी हिमाचल प्रदेश में काल का ग्रास बन गए थे। संवेदनशील बीटों में प्राकृतिक जल स्रोतों को चिह्नित करके स्थाई तौर पर पाइप लाइनें बिछा कर उच्चस्तरीय व्यवस्था बनाई जानी चाहिए ताकि तत्काल वहां से पानी लेकर रोलिंग पाइप बिछा कर आग पर काबू पाया जा सके। जहां-जहां सडकें पहुंच गई हैं वहां मोबाइल वाटर टैंक की व्यवस्था होनी चाहिए। हर तरह की स्थलाकृति में चल सकने वाले छोटे अग्नि शमन वाहनों का प्रबंध होना चाहिए। कम पानी से अधिक सफल अग्नि नियंत्रण के लिए धुंध स्प्रे तकनीक का प्रयोग किया जा सकता है।
इस तकनीक में अग्निशमन वाहन पर टरबाइन स्प्रयेर लगा होता है जो पानी को धुंध में परिवर्तित करके स्प्रे करता है, जिससे अग्निशमन की कुशलता बढ़ जाती है। पिट्ठू स्प्रयेर भी कारगर हो सकते हैं। यदि पानी में डिटरजेंट मिला कर स्प्रे किया जाए तो अग्निशमन की क्षमता बढ़ जाती है। छोटे रास्तों के लिए अग्निशमन बाइक भी उपलब्ध हैं। इनमें 40-50 लीटर पानी के टैंक लगे होते हैं और स्प्रे व्यवस्था होती है। अग्निशमन कर्मियों को सुरक्षा उपकरण उपलब्ध करवाए जाने चाहिए। इनमें अग्निरोधी वर्दी, फिल्टर मास्क, अग्निरोधी बूट, रीहाईड्रेशन घोल आदि मुख्य हैं। पानी लेने के लिए स्थान-स्थान पर पाइप पॉइंट और तालाब निर्माण होना चाहिए। ऐसी व्यवस्था होगी तो अग्निशमन कर्मी उत्साहित हो कर काम कर सकेंगे और जन सहयोग लेना भी आसान होगा।
हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में चीड़ का एकल रोपण भी आग के लिए बड़ा जिम्मेदार है। अत: प्रयास किया जाना चाहिए कि चीड़ वनों को मिश्रित प्राकृतिक वनों में बदला जाए। वन संबंधी विविध डेटा विश्लेषण के आधार पर अग्नि शमन दीर्घकालीन योजना बनानी चाहिए। जिसमें भूमि आच्छादन, स्थलाकृति, मिटटी का प्रकार, वनस्पति प्रकार और मानव गतिविधि को ध्यान में रखकर योजना बने तो संपूर्णता से स्थाई समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है।