भारतीयता के नीलकंठ कवि रामावतार त्यागी
जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, मैथिलीशरण गुप्त, वियोगी हरि, गजानन माधव मुक्तिबोध, नागार्जुन और त्रिलोचन जैसे महान साहित्य सर्जकों व मनीषियों के साहित्यिक अवदानों का मूल्यांकन भी उनके जाने के बाद ही हुआ। साहित्य की इस विचित्र अवधारणा का रहस्य और मनोविज्ञान क्या है यह समझना कठिन है। लेकिन जब भी साहित्य सर्जना के समावेशी इंकलाबी बीज को देश व समाज के उर्वर अंतस्थल में रोपने-सहेजने और उसे वट-वृक्ष की तरह आकार देकर संवारने वाले लोगों की गणना होगी उस विराट साहित्य संसार में कवि रामावतार त्यागी महानायक की तरह नजर आएंगे।
उनकी साहित्यिक सर्जना की अपराजेय जिजीविषा भाव और गीतों के बरक्स समतामूलक समाज गढ़ने और अपने सतरंगी स्वर के जरिए राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और समानता की स्थापना और नैसर्गिक मूल्यों को स्थापित करने की उत्कट आकांक्षा के तौर पर याद की जाएगी। उनके सुमधुर गीतों से निकली गूंज को दबे-कुचले वंचितों, शोषितों एवं पीड़ितों के आवाज के तौर पर समझा जाएगा। साहित्य के जरिए सर्वजन की चेतना को मुखरित करना कोई महान रचनाधर्मी ही कर सकता है।
वैसे ही हैं कवि रामावतार त्यागी जो न केवल साहित्य साधना के ऋषि भर हैं बल्कि अदभुत क्षमता से आबद्ध व उर्जा से लबरेज नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत भी हैं। कवि रामावतार त्यागी को समझने के लिए तत्कालीन समाज की बुनावट, उसकी स्वीकृतियां, विसंगतियां एवं धारणाओं को समझना आवश्यक है। ऐसा इसलिए कि उन्होंने समय की मुख्य धारा में व्याप्त द्वेष, नैराश्य, हिंसा, प्रतिहिंसा के विरुद्ध तन कर खड़ा होने और उसे बदलने के बदले में हर प्रवृत्तियों के ताप को ईमानदारी से सहा। शब्दों के हथियार रुपी विचारों के बल से मूलचेतना को भंग करने वाले छल को हराया। अपने गीतों के जरिए मातृभूमि और हाशिए पर खड़े लोगों को आवाज दी। जिस तरह कोई साहित्य सर्जक अपने विचारों को तार्किक आयाम देने के लिए हर जोखिम उठाने की ताकत और हिम्मत रखता है ठीक उसी तरह कवि रामावतार त्यागी ने इंकलाबी बदलाव के लिए अपने गीत रुपी बीजों को बदलाव का हथियार बनाया।
अगर कहा जाए कि उनके गीत समय के साथ मुठभेड़ करते नजर आए तो यह तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। उन्होंने अपने शब्द, सुर, लय और ताल रुपी बीजों का प्रकीर्णन कर साबित किया कि एक बड़े वृक्ष की संभावना छोटे से बीज में ही निहित होती है। जिस सहजता से भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकलने वाले हलाहल को पीया और जगतकल्याण की कामना की ठीक उसी प्रकार रामावतार त्यागी ने साहित्य मंथन से प्रस्फुटित आलोचना-समालोचना के ताप-विष को सहजता से सहा और पीया। साहित्य के इस नीलकंठ कवि को दुनिया ने सराहा भी। हर किसी साहित्य सर्जक में सर्जना के जरिए देश व समाज के गुणसूत्र को बदलने का माद्दा नहीं होता। लेकिन कवि रामावतार त्यागी ने अपने गीतों के जरिए न केवल परंपरागत मूल्यों और सनातनी मान्यताओं को सहेजा बल्कि कबीर की तरह पुरातनपंथी धारणाओं पर हमला बोलने से भी गुरेज नहीं किया। इस अर्थ में सरस्वती के सच्चे साधक रामावतार त्यागी कबीर ही नजर आते हैं। जिस तरह कबीर की शैली आमजन को खूब भाती है ठीक उसी तरह से आमजन के नीलकंठ कवि रामावतार त्यागी की भी शैली लोगों को भायी। कहते हैं न कि योगी और साधु कहीं ठहरते नहीं हैं।
अगर उनका शरीर ठहर भी जाए तो मन और संकल्प सदैव प्रवाहमान होते हैं। साहित्य के योगी कवि रामावतार त्यागी का शरीर भले ही शहरी जीवन से बंधा रहा लेकिन उनका मन और चेतना सदैव गांव की मिट्टी की मिठास और दर्द को समेटे-सहेजे रहा। गांव की निश्छल सहजता और प्रकृति की सुमधुरता उन्हें अनायास आकर्षित करती रही। आखिरकार शहरी जीवन से उबते हुए लिख ही डाला कि-‘मैं तो तोड़ मोड़ के बंधन अपने गांव चला जाऊंगा, तुम आकर्षक संबंधों का आंचल बुनते रह जाओगे।’ उनका यह गीत बंधन और वर्जनाओं को तो तोड़ता ही है साथ ही चुनौतियों को भी ललकारता है। यह अदम्य साहस ही उन्हें साहित्य का महावीर बनाता है। कवि रामावतार त्यागी को बनावटी-दिखावटी जीवन से सख्त ऐतराज था। वे नैसर्गिक मूल्यों के पक्षपाती और प्रकृति पुत्र थे। लिहाजा उनके गीतों में प्रकृति की हर धरोहर चाहे वह ध्वंस-निर्माण के रुप में हो अथवा प्रस्फुटन-बिखराव के रुप में सहज भाव को समेटे हुए है। उनके गीतों से प्रवाहित शब्द मानवता के बीच उठे दीवारों को तोड़ते और अत्याचार के घड़े को फोड़ते नजर आते हैं। उनके शब्द काल के कपाल पर सत्यमेव जय लिखते हैं। निष्काम भाव से शब्दों को उछालना, संवारना और फिर निर्विकार भाव से व्यवस्था में व्याप्त विद्रुपता पर प्रहार करना उनकी अपराजेय साधना का मूल मंत्र रहा है। यहीं कारण है कि उनकी रचनाओं ने उन्हें अमरत्व की कतार में खड़ा कर दिया। उनका एक गीत फिल्म ‘जिंदगी और तूफान’ (1975) का बहुत ही प्रसिद्ध है-‘एक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले, मैने मंजिल को तलाशा मुझे बाजार मिले, तेरे दामन में बता मौत से ज्यादा क्या है? जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है?।
कवि रामावतार त्यागी का यह गीत न केवल उनके हृदय में चल रहे भावी भारतीय समाज के निर्माण को बदलने के द्वंद को उद्घाटित करता है बल्कि समाज की वेदना को उकेरता हुआ निराशा के भंवर से बाहर निकल काल से मुठभेड़ करने के लिए भी प्रेरित व रोमांचित करता है। वे गीतों के जरिए जिंदगी से सवाल पूछते हैं कि बता तेरे दामन में मौत से ज्यादा क्या है। उनका यह सवाल एकांगी नहीं बल्कि सभी का है। गौर करें तो यह वह समय था जब भारत राष्ट्र लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने के लिए अपने जीवन को होम करने पर आतुर था। हाशिए पर खड़े लोग अपने अधिकारों के लिए तूफान से भीड़ने को तैयार थे। साहित्य संसार के तरकश से शब्दों के बाण निकल रहे थे। इस परिवेश से भला आमजन का कवि रामावतार त्यागी खुद को कैसे अलग रख सकते थे। लिहाजा उन्होंने ने भी अपने गीतों के जरिए लोगों के साहस में अदम्य उर्जा का संचार करना शुरु कर दिया। गौर करें तो साहित्य व सिनेमा का यह वह दौर था जिसके जरिए देश व समाज के नजरिए में बदलाव के मंत्र लिखे जा रहे थे। कवि रामावतार त्यागी के गीत उस बयार के संवाहक बने। उनके गीत से प्रस्फुटित शब्द शोषण से मुक्ति और सार्थक अभिव्यक्ति के प्रवाह का पैमाना बना। सच कहें तो इसी पैमाने को साहित्य सर्जकों ने प्रगतिवाद नाम दिया। जिस प्रगतिवाद की गंगा को साहित्य के आंचल में उतारने का काम सुमित्रानंदन पंत और निराला ने किया उस धारा को निर्मल और आचमन युक्त बनाने का बीड़ा कवि रामावतार त्यागी ने उठाया। उन्होंने अपने शब्दों के तीर से समाज की विद्रुपता और निर्लज्जता को साहस से उछाला और अवैध संतान पैदा करने वालों और फिर उस संतान को सभ्य समाज द्वारा ठोकरे मारने वालों को कटघरे में खड़ा किया। बौद्धिक चिंतन प्रवाह से उपजे गीतों के जरिए समाज को सच से सामना कराया। कवि रामावतार त्यागी का रचना संसार जीवन के विविध पक्षों को समेटे हुए है।
उनके रचना संसार के अंतर्मन में एक ओर साहसिक बदलाव की भगीरथ बेचैनी है तो वहीं दूसरी ओर मातृभूमि के लिए सब कुछ न्यौछावर करने की भीष्म प्रतिज्ञा भी है। उनकी कालजयी रचनाओं की उपयोगिता-प्रासंगिता न सिर्फ उन्हें हिंदी पाठ्यक्रम में शोभायमान किया है बल्कि हिंदी पाठ्यक्रम को भी समृद्ध होने का अवसर दिया है। कवि रामावतार त्यागी की प्रकाशित पंद्रह पुस्तकें अनुभूति और संवेदना के भाव को समेटे पुरुषार्थजनित भागवत रहस्य जैसे हंै जो जन का कल्याण करती है। इनका कविता संग्रह ‘आठवां स्वर’ जीवन मूल्य की स्वर साधना और साहित्य रुपी देवकी के आठवें पुत्र जैसा है जो जीवन को उद्विग्न करने वाले नैराश्य रुपी कंस को पराजित कर बार-बार जीवन को झंकृत और चेतना को पंुजित करता है। आज भी उनके गीत और शब्द-स्वर बार-बार प्रस्फुटित और गुंजायमान हो भारतमाता को निवेदित कर रहे हैं कि-‘मन समर्पित तन समर्पित और यह जीवन समर्पित, चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं। भारतीयता के इस नीलकंठ कवि को शत-शत नमन।
अरविंद जयतिलक