Muharram 2025: क्यों अलग-अलग तरीके से मुहर्रम मनाते हैं शिया और सुन्नी समुदाय? जानें ऐतिहासिक कारण
मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है, जो शिया और सुन्नी समुदायों के लिए गहरा धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व रखता है। 2025 में मुहर्रम 6 जुलाई से शुरू होने की उम्मीद है, और यह महीना हजरत इमाम हुसैन की शहादत और कर्बला की जंग को याद करने का समय है। शिया और सुन्नी समुदाय मुहर्रम को अलग-अलग तरीकों से मनाते हैं, जिसकी जड़ें ऐतिहासिक और धार्मिक मतभेदों में हैं। शिया समुदाय इसे गम और मातम का महीना मानता है, जबकि सुन्नी समुदाय इसे रोजा और इबादत के साथ जोड़ता है। इस लेख में, हम मुहर्रम के महत्व, शिया-सुन्नी के अलग-अलग रीति-रिवाजों, और इसके ऐतिहासिक कारणों को समझेंगे।
मुहर्रम का ऐतिहासिक महत्व
मुहर्रम की सबसे महत्वपूर्ण घटना 680 ईस्वी में कर्बला (आधुनिक इराक) में हुई, जब पैगंबर मुहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन को यजीद की सेना ने शहीद कर दिया। यह जंग इस्लाम में खलीफा के उत्तराधिकार को लेकर विवाद का परिणाम थी। हजरत हुसैन ने यजीद की सत्ता को अन्यायपूर्ण मानकर उसका विरोध किया, जिसके लिए उन्हें अपने 72 साथियों के साथ कर्बला में शहीद किया गया। यह घटना इस्लाम में सत्य और न्याय के लिए बलिदान का प्रतीक बन गई। शिया समुदाय इसे मातम और शहादत की याद में मनाता है, जबकि सुन्नी समुदाय इसे इस्लामिक इतिहास के एक दुखद अध्याय के रूप में देखता है। दोनों समुदायों के लिए मुहर्रम आस्था और बलिदान का प्रतीक है।
मुहर्रम की सबसे महत्वपूर्ण घटना 680 ईस्वी में कर्बला (आधुनिक इराक) में हुई, जब पैगंबर मुहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन को यजीद की सेना ने शहीद कर दिया। यह जंग इस्लाम में खलीफा के उत्तराधिकार को लेकर विवाद का परिणाम थी। हजरत हुसैन ने यजीद की सत्ता को अन्यायपूर्ण मानकर उसका विरोध किया, जिसके लिए उन्हें अपने 72 साथियों के साथ कर्बला में शहीद किया गया। यह घटना इस्लाम में सत्य और न्याय के लिए बलिदान का प्रतीक बन गई। शिया समुदाय इसे मातम और शहादत की याद में मनाता है, जबकि सुन्नी समुदाय इसे इस्लामिक इतिहास के एक दुखद अध्याय के रूप में देखता है। दोनों समुदायों के लिए मुहर्रम आस्था और बलिदान का प्रतीक है।
शिया समुदाय का मुहर्रम मनाने का तरीका
शिया समुदाय के लिए मुहर्रम गम और मातम का महीना है, जिसमें हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत को याद किया जाता है। पहले दस दिन, विशेषकर आशूरा (10वां दिन), मातम के लिए समर्पित होते हैं। शिया लोग काले कपड़े पहनते हैं, मस्जिदों और इमामबाड़ों में मजलिस (शोक सभाएं) आयोजित करते हैं, और ताजिया जुलूस निकालते हैं। मातम में सीने पर प्रहार करना, जंजीरों से मातम करना, और नौहा पढ़ना शामिल है। ये रीति-रिवाज इमाम हुसैन के दर्द और बलिदान के प्रति एकजुटता दर्शाते हैं। दिल्ली, लखनऊ, और हैदराबाद जैसे शहरों में ताजिया और जुलूस विशेष रूप से आयोजित होते हैं। शिया समुदाय का मानना है कि मातम के जरिए वे हुसैन के बलिदान को जीवित रखते हैं।
शिया समुदाय के लिए मुहर्रम गम और मातम का महीना है, जिसमें हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत को याद किया जाता है। पहले दस दिन, विशेषकर आशूरा (10वां दिन), मातम के लिए समर्पित होते हैं। शिया लोग काले कपड़े पहनते हैं, मस्जिदों और इमामबाड़ों में मजलिस (शोक सभाएं) आयोजित करते हैं, और ताजिया जुलूस निकालते हैं। मातम में सीने पर प्रहार करना, जंजीरों से मातम करना, और नौहा पढ़ना शामिल है। ये रीति-रिवाज इमाम हुसैन के दर्द और बलिदान के प्रति एकजुटता दर्शाते हैं। दिल्ली, लखनऊ, और हैदराबाद जैसे शहरों में ताजिया और जुलूस विशेष रूप से आयोजित होते हैं। शिया समुदाय का मानना है कि मातम के जरिए वे हुसैन के बलिदान को जीवित रखते हैं।
सुन्नी समुदाय का मुहर्रम मनाने का तरीका
सुन्नी समुदाय मुहर्रम को अधिक संयमित और इबादत के रूप में मनाता है। उनके लिए आशूरा का दिन रोजा रखने, दुआ करने, और चैरिटी करने का अवसर है। यह परंपरा पैगंबर मुहम्मद की हदीस से प्रेरित है, जिसमें उन्होंने आशूरा के दिन रोजा रखने की सलाह दी थी। सुन्नी समुदाय कर्बला की घटना को दुखद मानता है, लेकिन वे मातम या जुलूस पर ज्यादा जोर नहीं देते। इसके बजाय, वे मस्जिदों में कुरान पाठ, दुआ, और इमाम हुसैन के बलिदान पर चर्चा करते हैं। सुन्नी लोग 9वें और 10वें दिन (या 10वें और 11वें दिन) रोजा रखते हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में सुन्नी समुदाय शांतिपूर्ण इबादत और सामुदायिक कार्यों में भाग लेता है।
सुन्नी समुदाय मुहर्रम को अधिक संयमित और इबादत के रूप में मनाता है। उनके लिए आशूरा का दिन रोजा रखने, दुआ करने, और चैरिटी करने का अवसर है। यह परंपरा पैगंबर मुहम्मद की हदीस से प्रेरित है, जिसमें उन्होंने आशूरा के दिन रोजा रखने की सलाह दी थी। सुन्नी समुदाय कर्बला की घटना को दुखद मानता है, लेकिन वे मातम या जुलूस पर ज्यादा जोर नहीं देते। इसके बजाय, वे मस्जिदों में कुरान पाठ, दुआ, और इमाम हुसैन के बलिदान पर चर्चा करते हैं। सुन्नी लोग 9वें और 10वें दिन (या 10वें और 11वें दिन) रोजा रखते हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में सुन्नी समुदाय शांतिपूर्ण इबादत और सामुदायिक कार्यों में भाग लेता है।
शिया-सुन्नी मतभेदों का ऐतिहासिक कारण
शिया और सुन्नी समुदायों के बीच मुहर्रम मनाने के तरीकों में अंतर की जड़ें इस्लाम के शुरुआती इतिहास में हैं। पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु के बाद खलीफा के उत्तराधिकार को लेकर विवाद हुआ। शिया समुदाय का मानना था कि खलीफा का हक हजरत अली और उनके वंशजों (अहल-ए-बैत) का था, जबकि सुन्नी समुदाय ने अबू बक्र को खलीफा स्वीकार किया। कर्बला की जंग में हजरत हुसैन की शहादत ने शिया समुदाय के लिए बलिदान और प्रतिरोध को केंद्रीय बनाया, जिससे उनके मातम और जुलूस की परंपरा शुरू हुई। सुन्नी समुदाय, जो हदीस और सुन्नत पर आधारित है, ने इसे अधिक इबादत और रोजे के रूप में अपनाया। ये मतभेद आज भी उनके रीति-रिवाजों में झलकते हैं।
शिया और सुन्नी समुदायों के बीच मुहर्रम मनाने के तरीकों में अंतर की जड़ें इस्लाम के शुरुआती इतिहास में हैं। पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु के बाद खलीफा के उत्तराधिकार को लेकर विवाद हुआ। शिया समुदाय का मानना था कि खलीफा का हक हजरत अली और उनके वंशजों (अहल-ए-बैत) का था, जबकि सुन्नी समुदाय ने अबू बक्र को खलीफा स्वीकार किया। कर्बला की जंग में हजरत हुसैन की शहादत ने शिया समुदाय के लिए बलिदान और प्रतिरोध को केंद्रीय बनाया, जिससे उनके मातम और जुलूस की परंपरा शुरू हुई। सुन्नी समुदाय, जो हदीस और सुन्नत पर आधारित है, ने इसे अधिक इबादत और रोजे के रूप में अपनाया। ये मतभेद आज भी उनके रीति-रिवाजों में झलकते हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
मुहर्रम भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक है। दिल्ली, लखनऊ, और हैदराबाद में शिया और सुन्नी समुदाय एक साथ मिलकर मुहर्रम मनाते हैं, जिसमें हिंदू और अन्य समुदाय भी शामिल होते हैं। ताजिया जुलूस और मजलिस में विभिन्न समुदायों की भागीदारी एकता को दर्शाती है। हालांकि, कुछ जगहों पर साम्प्रदायिक तनाव की आशंका रहती है, जिसके लिए पुलिस और प्रशासन सतर्क रहते हैं। 2025 में दिल्ली में मुहर्रम के दौरान सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए हैं, ताकि शांति बनी रहे। सोशल मीडिया पर लोग मुहर्रम को शांति और बलिदान का प्रतीक बताते हैं, लेकिन कुछ जगहों पर मातम की परंपरा को लेकर बहस भी होती है। यह महीना धार्मिक और सामाजिक एकता को बढ़ावा देने का अवसर है।
मुहर्रम भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक है। दिल्ली, लखनऊ, और हैदराबाद में शिया और सुन्नी समुदाय एक साथ मिलकर मुहर्रम मनाते हैं, जिसमें हिंदू और अन्य समुदाय भी शामिल होते हैं। ताजिया जुलूस और मजलिस में विभिन्न समुदायों की भागीदारी एकता को दर्शाती है। हालांकि, कुछ जगहों पर साम्प्रदायिक तनाव की आशंका रहती है, जिसके लिए पुलिस और प्रशासन सतर्क रहते हैं। 2025 में दिल्ली में मुहर्रम के दौरान सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए हैं, ताकि शांति बनी रहे। सोशल मीडिया पर लोग मुहर्रम को शांति और बलिदान का प्रतीक बताते हैं, लेकिन कुछ जगहों पर मातम की परंपरा को लेकर बहस भी होती है। यह महीना धार्मिक और सामाजिक एकता को बढ़ावा देने का अवसर है।
