नेपाल में राजनीति की बलिहारी

भारत के पड़ोसी देश नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता अब सामान्य घटना हो गई है। नेपाल में 2008 में लोकतंत्र की स्थापना के बाद से चार बार राष्ट्रीय चुनाव हो चुके हैं। वहां अब तक 12 से ज्यादा प्रधानमंत्री रह चुके हैं। दुर्भाग्य से कोई भी सरकार पांच साल की अवधि पूरी नहीं कर पाई। मौजूदा वामदल वाली सरकार का हश्र भी यही हुआ। इस सरकार में प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड की नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी और केपी शर्मा ओली की एमाले दो धुर विरोधी समूह शामिल रहे। इनके बीच शक्ति और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर लगातार खींचतान जारी रही। आखिरकार वही हुआ, जिसकी आशंका थी। यह गठबंधन टूट गया और ओली फिर प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं।
कोई महीनाभर से पहले प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड ने 18 महीने के भीतर चौथी बार संसद के पटल पर विश्वासमत सिद्ध करने के लिए खड़े हुए थे। 13 मई को उपप्रधानमंत्री उपेंद्र यादव के समूह वाली जनता समाजवादी पार्टी आपसी फूट के चलते प्रचंड सरकार से अलग हो गई थी। प्रधानमंत्री प्रचंड ने संविधान की धारा 100(2) के अंतर्गत विश्वासमत का प्रस्ताव रखा। यह 157 मतों के साथ बहुमत से पारित हो गया। इससे पहले नेपाल में 2022 में प्रधानमंत्री प्रचंड के नेतृत्व में वामदल वाली सरकार बनी जरूर पर वह ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई। फिर प्रचंड ने प्रजातांत्रिक पार्टियों के साथ मिलकर दूसरी बार सरकार बनाई। इसमें नेपाली कांग्रेस भी शामिल थी। यह सरकार भी अधिक दिन तक नहीं टिक सकी। तीसरी बार प्रचंड ने पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एमाले), रवि लामिछाने की स्वतंत्रता पार्टी और उपेंद्र यादव की जनता समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई। यह सरकार मई में उपेंद्र यादव के इस्तीफे के चलते संवैधानिक संकट में आई।
अब ओली फिर देश की कमान संभालने वाले हैं पर राजनीतिक स्थिरता की कोई गारंटी नहीं है। नेपाल की राष्ट्रीय सभा में 275 सदस्य होते हैं। इसमें 165 सदस्य सीधे चुनकर आए हैं, उनमें से प्रचंड की माओवादी केंद्र के पास कुल 32 और एमाले के पास 78 सीटें हैं। एमाले ओली की पार्टी है। अतीत को देखें तो नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के बाद से ही लगातार राजनीतिक अस्थिरता है। नेपाल के राजनीतिक घटनाक्रम का अध्ययन करने पर पता चलता है कि स्थायी लोकतांत्रिक व्यवस्था की दिशा में आगे बढ़ने के बजाय लोकतंत्र की स्थापना के कुछ समय बाद ही राजनीतिक अस्थिरता के उभरने के कारण लोकतंत्र विफल हो गया। सनद है कि नेपाल में नब्बे के दशक में माओवादियों ने लोकतंत्र की स्थापना के लिए नए संविधान की मांग करते हुए हथियार उठा लिए थे। एक दशक तक चले गृहयुद्ध का अंत 2006 में शांति समझौते के साथ हुआ था।
इसके दो साल बाद संविधान सभा के चुनाव में माओवादियों की जीत हुई। इसी के साथ 240 साल पुरानी राजशाही का अंत हो गया। मगर मतभेद और मनभेद की वजह से संविधान सभा नया संविधान नहीं बना सकी और कार्यकाल का कई बार विस्तार करना पड़ा। आखिरकार 2015 में एक संविधान को स्वीकृति मिल पाई। नेपाल में लोकतंत्र बहाल हो गया पर लगातार अस्थिरता बनी रही। वह आज भी जारी है। नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल से भी समझ आती है। किसी भी प्रधानमंत्री ने पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया है। इसका बड़ा कारण सिद्धांतों के बजाय सत्ता के लिए भूख है। नेपाल में आज की राजनीति का सबसे बड़ा सच है।
