• September 8, 2024

दक्षिण के द्वार पर 2024 का सेमीफाइनल- अरविंद जयतिलक

 दक्षिण के द्वार पर 2024 का सेमीफाइनल- अरविंद जयतिलक

# राज्य विधानसभा में दलितों के लिए कुल 51 सीटें 

#36 अनुसूचित जाति के लिए और 15 अनुसूचित जनजाति के

नई दिल्ली : 224 सीट वाली कर्नाटक विधानसभा चुनाव का एलान हो गया है। चुनाव आयोग ने 10 मई को मतदान और 13 मई को नतीजे की तिथि तय की है। दक्षिण के द्वार पर लड़ा जाने वाला यह चुनाव 2024 के आमचुनाव से पहले सत्ता का सेमीफाइनल कहा जा रहा है। इस सियासी कुरुक्षेत्र के मुख्य प्रतिद्वंदी भाजपा और कांग्रेस हैं लेकिन इसके नतीजे देश की सियासत को नई दिशा देंगे। यह चुनाव परिणाम न सिर्फ भाजपा और कांग्रेस के लिए लिटमस टेस्ट होगा बल्कि क्षेत्रीय दलों की आगामी राजनीतिक गोलबंदी और भविष्य की दिशा भी तय करेगा। अगर कांग्रेस जीतती है तो बेशक विपक्षी दल उसके साथ कंधा जोड़ने को आतुर दिखेंगे। लेकिन कहीं भाजपा ने बाजी मार ली तो न सिर्फ कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ेगी बल्कि विपक्षी एकता का दिवास्वप्न भी चकनाचूर होगा। यह चुनाव ऐसे समय में हो रहा है जब देश की सियासत दोराहे पर है। सत्ता पक्ष के लिए दक्षिण के द्वार पर अपनी स्वीकार्यता बरकरार रखने की चुनौती है वहीं कांग्रेस के लिए करो-मरो की स्थिति है। बहरहाल राहुल गांधी की संसद सदस्यता जाने के बाद कांग्रेस को उम्मीद है कि वह सहानुभूति के लहर पर सवार होकर भाजपा को पटकनी देने मंे कामयाब होगी। प्रियंका गांधी ने आह्नान किया है कि कर्नाटक की जीत से भाजपा को जवाब दिया जाए। कांग्रेस कड़े तेवर से अडानी, महंगाई, बेरोजगारी और देश की सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दों को उठाकर भाजपा कीघेराबंदी कर रही है। उधर, विपक्षी दल भी कांग्रेस के साथ सुर मिलाते हुए भाजपा के प्रति आक्रामक हैं। मौजूं सवाल यह है कि कर्नाटक के रण का परिणाम क्या होगा? भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय दल जेडीएस की कितनी बड़ी तैयारी है? क्या यह चुनाव देश की सियासत को प्रभावित करेगा?ढ़ेरों ऐसे सवाल हैं जो भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल कांग्रेस की बात करें तो दक्षिण के अन्य राज्यों की अपेक्षा यहां उसकी स्थिति मजबूत है। बूथ स्तर पर उसके कार्यकर्ता सक्रिय हैं और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे इसी राज्य से आते हैं। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी को खूब समर्थन मिला। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह समर्थन वोट में तब्दील हो पाएगा? क्या कांगे्रस बोम्मई शासन से नाराज लोगों को एकजुट करने में कामयाब हो पाएगी? यह सवाल इसलिए कि कर्नाटक के रण में एक तीसरा खिलाड़ी पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा और उनके पुत्र कुमारस्वामी की पार्टी जेडीएस भी है। यह पार्टी भी वसवराज सरकार से नाराज वोटों पर नजर गड़ाए हुए है। फिलहाल जेडीएस ने चुनावी रण में एकला चलो का फैसला लिया है।

ऐसे में माना जा रहा है कि भाजपा के खिलाफ वोटों का बंटवारा होना तय है। गौर करें तो वोटों के कुछ फिसदी फिसलन से जीत-हार का फासला बहुत बड़ा हो जाता है। अगर जेडीएस 2018 विधानसभा चुनाव में प्राप्त कुल 18.3 फीसदी वोटों को हासिल करने में कामयाब हो जाती है तो फिर कांग्रेस के लिए चुनौती बढ़नी तय है। जेडीएस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में 37 सीटें जीतकर सत्ता का भोग लगाने में कामयाब रही। इस बार भी उसकी कोशिश किंगमेकर बनने की है। हालांकि जेडीएस की स्वीकार्यता संपूर्ण राज्य में नहीं है लेकिन तकरीबन एक दर्जन जिलों में उसकी अच्छी पकड़ है। जेडीएस जितना मजबूती से लड़ेगी कांग्रेस को उतना ही अधिक नुकसान होगा। आंकड़ों पर नजर डालें तो 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 78 सीट जीतने में कामयाब रही। उसे कुल 38.14 फीसदी वोट हासिल हुआ। वह भाजपा से तकरीबन दो फीसदी अधिक वोट हासिल की लेकिन उस अनुपात में सीटें नहीं जीती। जबकि भाजपा को कांग्रेस से दो फीसदी कम यानी 36.35 फीसदी वोट मिला लेकिन वह 104 सीटें जीतने में कामयाब रही। हालांकि भाजपा को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला लिहाजा वह सत्ता से बाहर हो गयी। उधर, कांग्रेस और जेडीएस दोनों मिलकर सरकार बनाने में कामयाब रहे। लेकिन तालमेल के अभाव में यह सरकार 14 महीने में ही धाराशायी हो गयी। कांग्रेस और जेडीएस ने एकदूसरे पर गंभीर आरोप लगाए। इसका फायदा भाजपा को मिला। वह कांग्रेस के विधायकों को तोड़कर बीएस येदुरप्पा के सिर पर ताज रख दिया। हालांकि दो वर्ष बाद बीएस येदुरप्पा को भी अपना सिंहासन छोड़ना पड़ा और वसवराज बोम्मई भाजपा के नए सरताज बने। मौजूदा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जा रहा है। वसवराज बोम्मई लिंगायत समुदाय से आते हैं जिसकी आबादी राज्य में 21 फीसदी है। कहा जाता है कि जिस राजनीतिक दल को लिंगायत का समर्थन हासिल होता है वहीं सत्ता का वरण करता है। लिंगायत समुदाय उत्तरी कर्नाटक की प्रभावशाली जातियों में शुमार है। कर्नाटक की सत्ता जिन दो महत्वपूर्ण जातियों के हाथ में रहती है वे हैं-लिंगायत और वोक्कालिंगा। कर्नाटक में सर्वाधिक मुख्यमंत्री इन्हीं समुदायों के रहे हैं। जेडीएस नेता देवगौड़ा वोक्कालिंगा समुदाय से आते हैं।

राज्य में इस समुदाय की आबादी तकरीबन 18 फीसदी है और ये राज्य के दक्षिणी हिस्से में ज्यादा है। यहीं वजह है कि भाजपा और कांगे्रस के मुकाबले दक्षिण में जेडीएस ताकतवर है। इस बार भी इस दक्षिणी हिस्से में जेडीएस और कांग्रेस के बीच ही मुख्य मुकाबला होगा। भाजपा का वोक्कालिंगा समुदाय के बीच अभी गहरी पैठ नहीं है। लेकिन लोकसभा चुनाव में वोक्कालिंगा समुदाय का वोट भाजपा को भरपूर मिलता है। विधानसभा के मुकाबले लोकसभा चुनाव में भाजपा को वोट प्रतिशत बढ़ जाता है। 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा इस राज्य में 51.78 फीसदी वोट हासिल करने के साथ लोकसभा की कुल 28 में से 25 सीटें जीतने में कामयाब रही। यानी देखें तो विधानसभा चुनाव के मुकाबले लोकसभा में उसे 15 फीसदी ज्यादा वोट मिला। इसका तात्पर्य यह हुआ कि कर्नाटक में प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी सर्वाधिक लोकप्रिय और पहली पसंद हैं। अगर कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती है तो भी 2024 के आमचुनाव में राहुल गांधी और विपक्ष के लिए प्रधानमंत्री मोदी के बराबर टिकना आसान नहीं होगा। कर्नाटक में लिंगायत और वोक्कालिंगा के अलावा दलित और मुस्लिम वोट भी जीत-हार के बड़े फैक्टर है। यहां दलित 20 और मुस्लिम 17 फीसदी हैं। राज्य में 20 फीसदी जनसंख्या अन्य पिछड़ा वर्ग की है। भाजपा और कांग्रेस की दलितों पर बराबर की पकड़ है।

राज्य विधानसभा में दलितों के लिए कुल 51 सीटें आरक्षित हैं। इनमें 36 अनुसूचित जाति के लिए और 15 अनुसूचित जनजाति के लिए है। 2018 के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो आरक्षित 51 सीटों में से भाजपा व कांग्रेस दोनों 20-20 सीटें जीतने में कामयाब रही। भाजपा को दलितों का 40 फीसदी और कांग्रेस को 37 फीसदी वोट हासिल हुआ। आदिवासियों के बीच कांग्रेस के मुकाबले भाजपा की स्वीकार्यता ज्यादा रही। भाजपा को आदिवासियों का 44 फीसदी और कांग्रेस को 29 फीसदी वोट मिला। वसवराज की सरकार ने दलित आरक्षण को 15 फीसदी से बढ़ाकर 17 फीसदी कर दिया है। इससे दलित खुश हैं। कांग्रेस का फोकस दलित वोटों के साथ मुस्लिम मतों पर है। दक्षिण भारत में केरल के बाद दूसरा सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला राज्य कर्नाटक है। यहां मुस्लिमों की आबादी तकरीबन 17 फीसदी है। दक्षिण कन्नड़, धारवाड़, गुलबर्गा वो इलाके हैं जहां मुसलमानों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। तकरीबन 60 सीटों पर मुस्लिम वोटरों का जबरदस्त प्रभाव है। कांग्रेस की कोशिश दलित, मुस्लिम एवं अन्य पिछड़े वर्ग की लामबंदी के जरिए सत्ता तक पहुंचना है। उधर, जेडीएस की भी नजर मुस्लिम मतों पर है। 2018 के विधानसभा चुनाव में वह मुस्लिम मतों के दम पर ही 37 सीटें जीतने में कामयाब रही। अगर मुस्लिम मतों का विभाजन कांग्रेस और जेडीएस के बीच होता है तो उसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा। इस चुनाव में बसपा और आम आदमी पार्टी भी किस्मत आजमाने जा रही है। ये दोनों पार्टियां भले ही अपना असर न दिखाएं लेकिन भाजपा के खिलाफ वोटों के बंटवारे का सबब जरुर बनेंगी। देखना दिलचस्प होगा कि दक्षिण के द्वार पर किसका परचम फहरता है।

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अरविंद जयतिलक

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